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________________ ध्यानाग्नि से कर्म भस्मीभूत सुभावित करे...।' निर्विषय चित्त, निर्विकार चित्त तभी संभव है, जब मात्र ध्यान अधर्म से हटे, धर्म की तरफ गतिमान हो। विषयों को | रह जाए-शुद्ध, एकदम शुद्ध। ध्यान के लिए कोई वस्तु न रह धीरे-धीरे बदले। जाए, बस ध्यान की ऊर्जा रह जाए। और दूसरी बात इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण ध्यान में रखनी 'मोक्षार्थी मुनि सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को जरूरी है कि अधर्म-ध्यान के विषय अधार्मिक हैं। ध्यान तो वही | सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी...।' है। धर्म-ध्यान के विषय बदल गए, ध्यान तो वही है। फिर एक घड़ी आती है, जब आदमी धर्म-ध्यान से भी उपरत फिर एक तीसरी अवस्था है, जिसको महावीर समाधि कहते हो जाता है। उसके भी पार हो जाता है, अतिक्रमण कर जाता है। हैं, सम्यकत्व कहते हैं। वस्तुतः समाधि, वस्तुतः निर्विकल्प चित्त फिर भी, महावीर कहते हैं, इन थोड़ी-सी बातों का चितवन की दशा है। वहां कोई भी विषय नहीं रह जाते। वहां तो | करता रहे। धर्म-ध्यान से विषयों को छुड़ाना पड़ता है। ....सदा अनित्य, अशरण आदि भावनाओं के चितवन में पहले ध्यान को गलत विषयों से छुड़ाओ, ठीक विषयों पर लीन रहे।' लगाओ। ठीक विषयों पर लगाना केवल संक्रमण की प्रक्रिया क्योंकि महावीर कहते हैं, कि चित्त की शक्ति बड़ी प्रबल है। है, ताकि गलत से छूटने में सहारा मिल जाए। फिर जब गलत से कभी-कभी क्षणभर को तुम पार भी हो जाते हो; और अगर छुटकारा हो जाए तो मत करना ऐसा, कि अब ठीक पर बैठकर शिथिल हो गए तो चित्त तुम्हें वापस खींच ले सकता है। इसलिए रह जाओ। यह तो केवल उपाय था। जैसे बीमार को औषधि देते ऐसी घड़ी भी आ जाए कि तुम्हें लगे अब ध्यान की कोई जरूरत हैं। बीमारी चली गई. अब औषधि का क्या करना? अब इसे नहीं, यह भी महावीर सावधानी बरतने को कहते हैं कि तुम अभी फेंकना होगा। इससे भी मुक्त होना होगा। यह तो केवल बीच जल्दी से ध्यान छोड़ मत देना। इतनी धारणाओं का चितवन का सहारा था; संक्रमण की स्थिति थी। करते रहनातो धर्म-ध्यान भी वस्तुतः ध्यान नहीं है, संक्रमण की स्थिति है; 'अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचि, सीढ़ी है। फिर तो ध्यान से भी मुक्त होना है। फिर तो ये धर्म के आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि—इन बारह भावनाओं विषय भी छोड़ देने हैं। तभी परम ध्यान होगा। जब कोई भी का चितवन जारी रखना।' विषय न रह जाए, तुम्हारी चेतना बचे, चेतना की ज्योति बचे। इनमें से एक-एक भावना समझने जैसी है। ये महावीर की मल लेकिन उस ज्योति का प्रकाश किसी चीज पर न पड़ता हो-न भित्तियां हैं-ये बारह भावनाएं। जिन्होंने इन बारह भावनाओं को धन पर, न धर्म पर; न काम पर, न अकाम पर; न क्रोध पर न साध लिया, समाधि अपने आप फलित हो जाती है। करुणा पर। | 'अनित्य'-महावीर कहते हैं, इस बात को सदा स्मरण रखें करुणा का उपयोग कर लेना क्रोध से बचने के लिए; लेकिन कि जो भी है यहां, सब क्षणभंगुर है। इसे क्षणभर को न भूलें। फिर करुणा से ग्रसित मत हो जाना। उससे भी पार जाना है। क्षणभंगुरता को क्षणभर को न बिसारें। जन्मों-जन्मों का मन पर एक ऐसी घड़ी खोजनी है, जहां तुम हो। बस तुम हो। अकेले यह प्रभाव है कि बदलती हुई चीजें थिर मालूम होती हैं। तुम हो। तुम देखते हो दीवाल, वृक्ष, सब थिर मालूम होते हैं, हालांकि उसको महावीर कहते हैं केवल, केवल दशा. कैवल्य. जहां तम जानते हो. सब बदल रहे हैं। जो फल कल नहीं था. आज बस तुम हो। ऐसा समझो कि शून्य में कोई दीया जलता हो। आ गया। जो पत्ते कल थे, गिर गए। यह दीवाल भी जो बहुत जहां प्रकाशित करने को कुछ भी नहीं है, बस प्रकाश है। क्योंकि मजबूत है, यह भी राख हो जाएगी। यह भी आज नहीं कल रेत जो भी चीज मौजूद हो, वह प्रकाश को थोड़ा-सा धूमिल और होकर बह जाएगी। कितने महल बने और बिखर गए। पहाड़ दूषित करती है। क्योंकि कोई चीज मौजूद हो तो उसकी छाया बनते हैं और खो जाते हैं। सागर बनते हैं और मिट जाते हैं। पड़ती है। कोई चीज मौजूद हो तो अंधेरा पैदा होता है। महाद्वीप के महाद्वीप लीन हो जाते हैं। 377| Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ||
SR No.340150
Book TitleJinsutra Lecture 50 Dhyanagni se Karm Bhasmibhut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size41 MB
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