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________________ त्वरा से जीना ध्यान है mammmmwww रहा था, उसने देखा एक कुतिया, उसकी पीठ सड़ गयी है, उसमें तुम हैरान होओगे, ये बाहर से दिये गये उत्तर हैं। कोई तुम्हारी मां कीड़े पड़ गये हैं—वह उसे दिखायी पड़ी। उससे न रहा गया। ने दिया था, कोई तुम्हारे पिता ने, कोई तुम्हारे मित्र ने, कोई बैठा, उसके कीड़े अलग किये, जब वह उसके घाव धो रहा था, तुम्हारी पत्नी ने, कोई तुम्हारे शत्रु ने, कोई अपनों ने, कोई परायों तभी ध्यान घटा। जो नौ साल में नहीं घटा था, वह घटा। ने। इन सबको इकट्ठा कर के तुमने एक घास-फूस की झूठी अचानक, जैसे कुछ गहन में भीतर खींचे लिये चला गया। प्रतिमा खड़ी कर ली है। और निश्चित ही यह प्रतिमा प्रतिपल आंख बंद हो गयीं, वह भीतर पहुंच गया। जिसकी तलाश थी, घबड़ायी रहती है, क्योंकि यह बिलकुल झूठी है। यह कभी भी वह रोशनी सामने खड़ी है। जिसकी तलाश थी, वह बुद्धत्व गिर सकती है और बिखर सकती है। इसमें कोई बल नहीं है, खिला। उसने कहा, हे प्रभु! इतने दिन तक खोजता था-नौ कोई प्राण नहीं है। वर्ष अथक श्रम किये, तब तुम न दिखायी पड़े, तब यह रोशनी न ध्यान का अर्थ है, पहले बाहर से भीतर मुड़ना। और भीतर मिली, अब! तो कहते हैं उस रोशनी से उत्तर आया कि मैं तो तब जाते वक्त तुम पाओगे दरवाजे पर अड़ा हुआ ताला। वह ताला भी तेरे ही भीतर था, लेकिन तेरे ध्यान की चेष्टा बड़ी है अहंकार का। अहंकार-पूर्ण थी। तेरा अहंकार बाधा बन रहा था। इस कुतिया 'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है, वैसे ही के घाव धोते वक्त एक क्षण को तेरा अहंकार मौजद न रहा। जिसका चित्त निर्विकल्प समाधि में लीन हो गया. उसके करुणा हो, तो अहंकार मौजूद नहीं रहता। प्रेम हो, तो अहंकार | चिरसंचित शुभाशुभ कर्मों को भस्म करनेवाली आत्मरूप अग्नि समाप्त हो जाता है। मैं तो सदा से तेरे पास था-नौ महीने से भी प्रगट होती है।' और नौ सालों से भी, नौ जन्मों से भी / मैं तो भीतर था ही, मैं 'जैसे पानी का योग पाकर नमक विलीन हो जाता है।' नमक तेरा स्वभाव हूं, लेकिन तू भीतर नहीं आ पाता था। ध्यान भी कर की डली पानी में डालते ही खो जाती है। विलीन हो जाती है। रहा था तू, तो उसमें अकड़ थी—मैं पाकर रहूंगा। वह अहंकार ऐसे ही जिसका चित्त निर्विकल्प ध्यान में लीन हो गया, जिसने की उदघोषणा थी। | बाहर को छोड़ा, बाहर से बने हुए प्रतिबिंबों के अहंकार को भीतर जाना है जिन्हें उन्हें बाहर की दौड़ छोड़नी है। और बाहर छोड़ा, निर्विकल्प हुआ, निशल्य हुआ, अपने एकांत में ठहरा, की दौड़ का जो सूक्ष्म सूत्र है-अहंकार—वह भी तोड़ना है। | तत्क्षण जन्मों-जन्मों की चिरसंचित शुभ-अशुभ कर्मों की जो स्वयं को मिटाये बिना कोई ध्यान को उपलब्ध नहीं होता। और | राशि है, वह विलीन हो जाती है। स्वयं को मिटाये बिना कोई स्वयं को उपलब्ध नहीं होता। यह महावीर बड़ी क्रांतिकारी घोषणा कर रहे हैं। वह कह रहे हैं, जिसको हमने अभी स्वयं समझा है, जिसको अभी हम कहते जन्मों-जन्मों की कर्म की शृंखला को मिटाने के लिए यह मत , 'मैं', यह हमारी आत्मा नहीं है। यह आत्मा ही सोचना कि जन्म-जन्म लगेंगे अब शभ कर्म करने में, एक-एक होती, तो हम परम आनंद से भर गये होते। यह अहंकार है। कर्म को काटना पड़ेगा। तब तो असंभव हो जाएगा। क्योंकि अहंकार का अर्थ है, यह हमने बाहर से इकट्ठा किया है। हम कितने अनंत काल से कर्म करते रहे। अगर एक-एक कर्म किसी स्कूल में 'गोल्ड मेडल' मिल गया था, वह जुड़ गया। को काटना पड़े, तो अनंत काल लग जाएगा। तब तो मुक्ति किसी अखबार में नाम छप गया था, वह काटकर चिंदी जोड़ असंभव है। ली। कोई आदमी ने हंसकर कह दिया कि तुम बड़े सुंदर हो, वह महावीर कहते हैं, एक क्षण में भी घट सकती है घटना, त्वरा भी जोड़ लिया। किसी ने कहा कि तुम बड़े त्यागी हो, किसी ने चाहिए, तीव्रता चाहिए; अग्नि की प्रगाढ़ता चाहिए-एक क्षण कहा तुम बड़े सच्चरित्र हो, कहीं 'पद्मश्री' मिल गयी, कहीं में सारा अतीत भस्म हो सकता है। और तुम ऐसे ताजे हो सकते 'भारतरत्न' हो गये, इस तरह के सब पागलपन इकट्ठे कर लिये, | हो, जैसे तुम पहले क्षण जन्मे, जैसे इसके पहले तुम कभी थे ही उन सबको जोड़कर अहंकार की थेगड़ी बनाकर बैठ गये हैं। नहीं। तुम्हारा सारा इतिहास ध्यान की एक गहरी झलक में तुम जरा कभी सोचना कि 'मैं कौन हूं', तो जो भी उत्तर आयें विलीन हो सकता है, विदा हो सकता है। जन्मों-जन्मों की जमी 291 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340146
Book TitleJinsutra Lecture 46 Twara Se Jina Dhyan Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size35 MB
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