________________ जिन सूत्र भागः2 - गात शिथिल हुए जाते हैं। अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने प्रश्न ही नहीं | जब कोई थोथे ज्ञान से मुक्त हो जाता है, तो वास्तविक का जन्म पूछा, तो तुम्हारा कृष्ण बोले कैसे? होता है। शायद वास्तविक तो मौजद ही है, थोथे के कारण पता तो बाहर के कृष्ण और बाहर के अर्जुन को थोड़ा बाहर ही छोड़ नहीं चलता। देना। प्रश्न बनना, तो तुम अर्जुन बनोगे। और ध्यान रखना, एक बौद्ध भिक्षु हुआ—आर्य असंग। बड़ा बहुमूल्य भिक्षु जहां भी अर्जुन प्रगट होता है, वहां कृष्ण प्रगट हो ही जाएंगे। हुआ। उसके जीवन में बड़ी अनूठी कथा है। नालंदा में आचार्य जहां प्रश्न है, वहां उत्तर आयेगा ही। तुम प्रश्न भर पैदा कर लो, | था। फिर समझ आयी संसार की व्यर्थता की तो सब छोड़कर लेकिन प्रश्न सच्चा हो, प्रगाढ़ हो, ज्योतिर्मय हो। तुम अपने को | चला गया। तय कर लिया कि अब तो ध्यान में ही डबंगा, हो दांव पर लगाने को तैयार होओ। अर्जुन ने ऐसे ही पूछा गया ज्ञान बहुत। जान लिया सब, और जाना तो कुछ भी नहीं। होता–काम चलाऊ; ऐसे ही कृष्ण को प्रभावित करने के लिए, | पढ़ डाले शास्त्र सब, हाथ तो कुछ भी न आया। छोड़कर पहाड़ देखो मैं कितना धार्मिक हुए जा रहा हूं—अर्जुन ने ऐसे ही पूछा चला गया। एक गुफा में बैठ गया। तीन साल अथक ध्यान होता कि चलो, क्या हर्ज है, कृष्ण को भी तृप्ति मिल जाएगी कि किया। लेकिन कहीं मंजिल करीब आती मालूम न पड़ी। कैसा महान शिष्य मेरा, कैसा महान साथी! अर्जुन कोई अभिनय हतोत्साह, हताशा से भरा गुफा से बाहर निकल आया। सोचा नहीं कर रहा था। वही तो गीता का यथार्थ है। वस्तुतः उसके लौट जाऊं। तभी उसने क्या देखा कि एक चिड़िया वृक्षों से पत्ते प्राण कंप गये देखकर। तोड़-तोड़कर लाती है, पत्ते गिर-गिर जाते हैं, घोंसला बनता तुमने अगर आंख खोलकर जगत को देखा है, तुम्हारे प्राण भी नहीं; मगर फिर चली जाती है, फिर ले आती है, फिर चली जाती कंपने चाहिए। तुमने अगर गौर से देखा, तो युद्ध-पंक्तियां बंधी | है, फिर ले आती है। उसने सोचा क्या इस चिड़िया से भी खड़ी हैं। हजारों तरह का युद्ध चल रहा है, संघर्ष चल रहा है, कमजोर है मेरा साहस और मेरी आशा और मेरी आस्था? हिंसा हो रही है। तुम उसमें भागीदार हो। अर्जुन को इतना ही तो घोंसला बन नहीं रहा है, लेकिन इसकी कहीं भी आशा नहीं दिखायी पड़ा कि कम से कम मैं तो अलग हो ही जाऊं; जो हो टूटती, हताशा नहीं आती। वह फिर वापस गुफा में चला गया। रहा है, हो। कम से कम यह दाग मेरे उपर तो न पड़े। वह तीन साल तक कहते हैं, फिर उसने हिम्मत करके ध्यान किया। थककर बैठ गया। उसने कहा, मैं भाग जाऊं। छोड़ दूं सब। कुछ न हुआ। सब श्रम लगा दिया, लेकिन कुछ न हुआ। फिर कछ सार नहीं। इतनी मृत्य! इतनी हिंसा। मिलेगा क्या? घबड़ाकर एक दिन बाहर आ गया और कहा, अब बहत हो गया! राज-सिंहासन पर बैठ जाऊंगा तो क्या होगा? इतनी लाशों के | फिर उस वृक्ष के नीचे बैठा था कि देखा एक मकड़ी जाला बुन ऊपर राज-सिंहासन रखा जाएगा? नहीं, यह प्रतिस्पर्धा, यह रही है। गिर-गिर जाती है, जाले का धागा सम्हलता नहीं, प्रतियोगिता मेरे काम की नहीं। उस घड़ी तैयारी बनी। उस घड़ी फिर-फिर बुनती है। फिर उसे खयाल आया कि आश्चर्य की जिज्ञासा उठी और यह जिज्ञासा कुतूहल न थी। यह ऐसे ही पूछ बात है, ऐसी चीजें मुझे बाहर आते ही से दिखायी पड़ जाती हैं। लिया प्रश्न न था चलते-चलते। इसके पीछे गहरे प्राण दांव पर अभी मकड़ी भी नहीं हारी, मैं क्यों हारूं? एक बार और लगाने की तैयारी थी। तुम अभी अर्जुन नहीं बने, तुम्हारी गीता कोशिश कर लूं। कहते हैं, वह फिर तीन साल ध्यान किया। पैदा नहीं हो सकती। कुछ न हुआ। बहुत परेशान हुआ। अब उसने सोचा, अब तो जब बाहर की गीता उत्तर देने लगे, कहना कि महाराज, हे बाहर निकलूंगा पता नहीं फिर कुछ हो जाए, तो अब की दफे कृष्ण महाराज, तुम बाहर रहो! अभी मुझे प्रश्न को जीने दो, | आंख बंद करके ही चले जाना है। अब कुछ भी हो रहा हो अभी अर्जुन पैदा नहीं हुआ, तुम समय के पहले आ गये। उधार | बाहर-मकड़ी हो कि चिड़िया हो कि कुछ भी हो, परमात्मा कोई जो तुमने सीख लिया हो, बुद्धि में जो इकट्ठा कर लिया हो | भी इशारे दे, अब बहुत हो गया, नौ साल कोई थोड़ा वक्त नहीं, कूड़ा-कर्कट सब तरफ से बटोरकर, उसे बाहर रख देना। सारा जीवन गंवा दिया। ध्यान की प्रक्रिया थोथे ज्ञान से मुक्त होने की प्रक्रिया है। और वह आंख बंद करके भागा। वह जैसे ही पहाड़ से नीचे उतर 290 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org