________________ SONOMINE त्वरा से जीना ध्यान है। सभी धर्म मौलिक रूप से ध्यान पर खड़े हैं। और कोई उपाय | छुए। लेकिन ध्यान की जब तक वर्षा न हो जाए, भीतर की आग ही नहीं। जैन-धर्म उसी दिन मरने लगा, जिस दिन ध्यान से बुझती नहीं। जब तक ध्यान की रसधार न बहे, तब तक भीतर संबंध छूट गया। अब तुम साधो अणुव्रत और महाव्रत, अब तुम | कुछ अंगारे-सा जलता ही रहता है, चुभता ही रहता है। साधो अहिंसा, लेकिन तुम्हारी अहिंसा पाखंड होगी। क्योंकि महावीर ने तो कहा कि मूल धर्म है—ध्यान। जिसने ध्यान ऊपर से आरोपित होगी। भीतर से आविर्भाव न होगा। साध लिया, सब साध लिया। ध्यानी अहिंसक हो जाता है। होना नहीं पड़ता। ध्यानी में तो हम समझें, यह ध्यान क्या है? पहली बात, अंतर्यात्रा है। महाकरुणा का जन्म होता है। अपने को जानकर दूसरे पर दया दृष्टि को भीतर ले जाना है। बाहर भागती ऊर्जा को घर बुलाना आनी शुरू होती है। क्योंकि अपने को जानकर पता चलता है कि है। जैसे सांझ पक्षी लौट आता है, नीड़ पर, ऐसे अपने नीड़ में दूसरा भी ठीक मेरे जैसा है। अपने को जानकर यह स्पष्ट वापस, वापस आ जाने का प्रयोग है ध्यान। अनुभव हो जाता है कि सभी सुख की तलाश कर रहे हैं, जैसे मैं | जब सुविधा मिले, तब समेट लेना अपनी सारी ऊर्जा को नकर पता चलता है, जैसे दख मझे संसार से घडीभर को सही-सबह. रात, जब सविधा मिल अप्रिय है, वैसा सभी को अप्रिय है। जिसने अपने को जान जाए तब बंद कर लेना अपने को। थोड़ी देर को भूल जाना संसार लिया, वह अगर अहिंसक न हो, असंभव! और जिसने अपने को। समझना कि नहीं है। समझना कि स्वप्नवत है। अपने को वह अहिंसक हो जाए, यह असंभव। अलग कर लेना। अपने को तोड़ लेना बाहर से। और अपने कल मैं महर्षि महेश योगी के गुरु का जीवन-चरित्र पढ़ रहा भीतर देखने की चेष्टा करना-कौन हूं मैं? मैं कौन हूं? यही था। ब्रह्मानंद सरस्वती का। वह युवा थे। प्रकट, प्रगाढ़ खोजी एक प्रश्न। शब्द में नहीं, प्राण में। यही एक प्रश्न, बोल-बोल थे। गुरु की तलाश में थे। किसी व्यक्ति की खबर मिली कि वह कर मंत्र की तरह दोहराना नहीं है, बोध की तरह भीतर बना रहे। ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, तो वह भागे हिमालय पहुंचे। वह एक प्रश्न-चिह्न खड़ा हो जाए भीतर अस्तित्व में-मैं कौन आदमी मृगचर्म बिछाये, बिलकुल जैसा योगी होना चाहिए वैसा हूं?—और इसी प्रश्न के साथ थोड़ी देर रहना। एकदम से उत्तर योगी दिखायी पड़ता था। प्रभावशाली आदमी मालूम पड़ता न मिल जाएगा। और एकदम से जो उत्तर मिले, समझना कि था। सशक्त, बलशाली! इस युवा ने—ब्रह्मानंद ने-पूछा कि थोथा है। एकदम से उत्तर मिल सकता है, वह उत्तर सीखा हुआ महाराज! यहां कहीं आपकी झोपड़ी में थोड़ी अग्नि मिल | होगा। पूछोगे, मैं कौन हूं? भीतर से उत्तर आयेगा—तुम जाएगी? अग्नि। हिंदू संन्यासी अग्नि नहीं रखते अपने पास। आत्मा हो। वह तुमने शास्त्र से पढ़ा है। इतनी सस्ती आत्मा नहीं न अग्नि जलाते हैं। उन्होंने कहा, तुझे इतना भी पता नहीं है कि है। किसी से सुन लिया है। भीतर से आयेगा-अहं ब्रह्मास्मि। संन्यासी अग्नि नहीं छूते। फिर भी उस युवा ने कहा, फिर भी वह उपनिषद में पढ़ लिया होगा, या सुन लिया होगा। महाराज! शायद कहीं छिपा रखी हो। वह जो योगी थे, बड़े वर्षों की चेष्टा के बाद, वर्षों प्रश्न के साथ रहने के बाद-और आग हो गये, बडे नाराज हो गये, चिल्लाकर बोले कि नासमझ प्रश्न के साथ रहने का अर्थ ही यह है कि तुम थोथे और उधार कहीं का! तुझे इतनी भी अकल नहीं कि हम और अग्नि चुराकर उत्तर स्वीकार मत करना, अन्यथा उत्तर फि रखेंगे! क्या समझा है तूने हमें? तो ब्रह्मानंद ने कहा, महाराज! देख लेना कि ठीक है; यह कठोपनिषद से आता है, बिलकुल अगर अग्नि नहीं है, नहीं छपायी, तो ये लपटें कहां से आ रही ठीक है; यह गीता से आता है, बिलकुल ठीक है; क्षमा कर हैं? लपटें तो आ गयीं। गीता मैया! छोड़ पीछा! कुछ मुझे भी जानने दे! गीता बाहर है। ऊपर से थोपकर कोई अभिनय कर सकता है। यह घटना मुझे असली गीता तो भीतर है। तुम्हारी गीता तो घटने को है, अभी प्रीतिकर लगी। अग्नि छुपाने का सूत्र भी इसमें साफ है। यह घटी नहीं। अभी तुम्हारा महाभारत तो शुरू है। अभी तो तुम्हारा बाहर की अग्नि को छूने की बात नहीं, न बाहर की अग्नि रखने न अर्जुन थका भी नहीं। अभी तो तुम्हारा अर्जुन कंपा भी नहीं। रखने से कुछ फर्क पड़ता है, यह तो भीतर की आग संन्यासी न अभी तो तुम्हारे अर्जुन ने गांडीव छोड़ा भी नहीं और कहा कि मेरे 289 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrar.org