________________ जिन सूत्र भाग: 14 कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। अपनी झोली में घर से डाल लिए। देनेवालों के लिए थोड़ी मिलन की रात की कशमकश न पूछ और यह मत पूछ कि कैसे हिम्मत होती है कि चलो इसको औरों ने भी दिया है। तो भिखारी सुबह हुई! बड़ी मुश्किल हुई। कभी एक चिराग जला लिया, थोड़े-से पैसे अपनी थाली में डालकर बैठ जाता है। तो फिर बुझा दिया, फिर जला लिया, फिर बुझा दिया! ऐसी | निकलनेवाले को थोड़ा साहस रहता है कि कोई हम ही नहीं फंस उधेड़-बुन हुई। रहे हैं, और लोगों ने भी दिया है। तो थोड़ी लज्जत भी आती है, शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हई | तो थोड़ी लज्जा भी लगती है, थोडा शर्म भी. संकोच भी लगता है कभी इक चिराग जला दिया, कभी इक चिराग बुझा दिया। कि अब और दे चुके हैं तो हम कोई इतने गये-बीते तो नहीं, चलो ऐसी कशमकश आएगी। घबड़ाना मत। बस एक ही खयाल एक पैसा दे दो! तो थोड़े-से चावल के दाने डालकर झोली में रखना कि जो भी हो रहा है, जो भी होता है-शुभ है। यही | भिखारी चला। राह पर आया, कभी सोचा भी न था। सपना भी तुम्हारी प्रार्थना हो अब कि जो भी हो रहा है, शुभ है। और तब न देखा था-राह पर आ रहा है उस महाराजा का रथ-स्वर्ण शुभ के नये-नये द्वार खलते जायेंगे। रथ, सूर्य की किरणों में चमकता हुआ! उसने सोचा, आज मेरे दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, धन्यभाग, आज मेरे भाग्य खुल गये! आज तो झोली पसार दूंगा सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं। और मांग लूंगा। अब राजा ही सामने आ रहा है, द्वार से कभी इस चिंता में मत पड़ना क्योंकि अब जल्दी ही दिल के पास जो भीतर जाने का मौका मिलता न था। द्वारपाल द्वार से ही भगा देते परमात्मा का रास्ता गुजरता है वह दिखायी पड़ेगा। सोच-विचार | थे। अब आप तो रास्ते पर मिल गये। में मत पड़ना। जब सब सन्नाटा हो जाता है, उत्सव भी चला तो वह बीच में खड़ा हो गया। रथ रुका। राजा न केवल उसे जाता है, आनंद भी चला जाता है और सब शांत हो जाता है और अपने पास बुलाया, खुद उतरकर नीचे आया। लेकिन राजा को आदमी ठगा-ठगा रह जाता है तभी हृदय के पास से जिसका पास देखकर वह घबड़ा गया। कभी राजा की सन्निधि नहीं की। रास्ता गुजरता है उसके दर्शन होते हैं। हम अपने करीब आये, याद ही न रही, अवाक ठगा रह गया। देखता रहा राजा के मुंह असंग हुए, निसंग हुए! यही संन्यास की पराकाष्ठा है। संसार की तरफ। और इसके पहले कि वह अपनी झोली फैलाये, राजा और बाहर का सब भूल गया! भीतर, भीतर, भीतर उतरते गये। | ने अपनी झोली फैला दी। और उसने कहा, मना मत करना, अपने केंद्र पर आये। वहां से गुजरती है राह परमात्मा की! तब | इनकार मत करना, क्योंकि मेरे ज्योतिषियों ने कहा है कि आज मैं संदेह में मत पड़ जाना क्योंकि ये मन में विचार, आखिरी विचार भीख मागू तो राज्य बचेगा, अन्यथा राज्य पर खतरा है।। यही आता है कि कहीं यह रास्ता सही है कि गलत। अब कठिनाई हम सोच सकते हैं : भिखारी जिसने कभी दिया दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर, नहीं, सदा मांगा! देने की कोई आदत ही नहीं। देने का कोई सोचता हूं ये तेरी राहगुजर है कि नहीं। संस्कार ही नहीं। वह बहुत घबड़ाया, लेकिन अब इनकार भी न यह मत सोचना। यह विचार करना ही मत। अब तो विचार | कर सका, क्योंकि राजा ने कहा, 'इनकार मत करना, पूरे राज्य को पूरा का पूरा ही त्याग दो। अब तो निर्विचार हो रहो। और जो पर खतरा है। कुछ भी दे दो, उसने हाथ भीतर डाला झोली के। | भी हो, उसको स्वीकार करते जाओ। धीरे-धीरे उसी रास्ते पर मुट्ठी बांधता है, खोलता है। कभी दिया तो है नहीं, देने की उसका रथ भी आयेगा। और जब वह रथ से उतरे और तुम्हारे आदत ही नहीं। बामुश्किल एक चावल का दाना निकालकर सामने अपनी झोली फैला दे तो कंजूसी मत करना। सब डाल उसने राजा की झोली में डाल दिया। रथ आया-गया हो गया, देना ! स्वाहा! सब डाल देना! धूल उड़ती रह गयी! वह तो खड़ा रह गया। उसने कहा, 'यह रवींद्रनाथ का एक गीत है। एक भिखारी सुबह-सुबह उठा। तो हद्द हो गयी। और गरीब कर गया! एक दाना और पास था, अपनी झोली को कंधे पर टांगकर भीख मांगने निकला। जैसा | वह भी ले गया!' ' कि भिखारी करते हैं, उसने भी किया। थोड़े-से चावल के दाने फिर सांझ घर लौटा भीख मांगकर। उस दिन खूब भीख 530 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org