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________________ रकम a मांग नहीं-अहोभाव, अहोगीत - शुभ हो रहा है। प्यास थिर हो रही है। प्यास गहरी हो रही है। है, कौन भगवान है। नदी जब उथली होती है तो शोरगल करती है। नदी जब गहरी रामकृष्ण अपने ऊपर ही फूल डाल लेते थे। भगवान को होती है तो शांत हो जाती है। इतनी शांत हो जाती है कि पता ही चढ़ाने जाते, खुद ही पर डाल लेते। भगवान को भोग लगाते, नहीं चलता कि चलती भी है या नहीं। खुद ही के मुंह में डाल लेते। लोगों ने शिकायत की कि यह तो गहरी नदी को देखा? थिर मालूम होती है। बस ऐसा ही हो कोई पूजा न हुई। ये तो पूजा का उल्लंघन है। रहा है। जो प्यास अब तक थोड़ी तरंगें भी पैदा करती थी, वह रामकृष्ण ने कहा, 'करूं क्या? भेद ही नहीं मालूम होता। और गहराई पर जा रही है। अब सब चुप हो रहा है। | यह मुंह भी अब उसी का! यह सिर भी उसी का। ये हाथ भी कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का, उसी के! ये फूल भी उसी के!' आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे। कौन कौन है, पक्का पता नहीं चलता! आंख हटाना भी भूल जायेगा। विचार करना भी भूल इक तेरी तमन्ना ने कुछ ऐसा नवाजा है, जायेगा। ठगे-ठगे से! बैठे-बैठे। मांगी ही नहीं जाती अब कोई दुआ हमसे। कुछ रोज ये भी रंग रहा इंतजार का, अब यह जो घड़ी आ रही है, इस घड़ी में कुछ भी मांगना मत। आंख उठ गयी जिधर बस उधर देखते रहे। अब तो सिर्फ धन्यवाद, सिर्फ अहोभाव। उसे धन्यवाद देना ! ऐसी दीवानगी आयेगी, आ रही है। स्वागत करना उसका! जो भी वह दे, धन्यवाद देना। उदासी मालूम पड़े तो भी धन्यवाद पलक पांवड़े बिछाना उसके लिए! घबड़ा मत जाना। क्योंकि | देना; जल्दी उदासी शांति में परिणित हो जायेगी। ऐसा लगे, पहले-पहले जब शांति उतरती है तो लगती है उदासी है। क्योंकि उत्सव खो रहा है तो भी धन्यवाद देना। एक नया उत्सव शुरू हो हम उदासी से परिचित हैं, शांति से परिचित नहीं हैं। दोनों के | रहा है जो अभिव्यक्ति का नहीं है, जो अनभिव्यक्त है, जो शांत चेहरे में थोड़ा तालमेल है। है और मौन है। तो जब पहली दफे शांति आती है तो ऐसा लगता है कहीं ये तो मैं तुमसे कहता हूं, महावीर भी नाचे हैं, मीरा ही नहीं नाची। नहीं कि हम उदास हुए जा रहे हैं। पहले-पहले आनंद भी बाजे लेकिन मीरा का नाच बाहर भी आया, महावीर का नाच भीतर ही बजाता है। फिर धीरे-धीरे बाजे शांत होने लगते हैं, क्योंकि भीतर रह गया। इतना गहन है। बाजों का शोरगुल भी आनंद में बाधा है। फिर आनंद की एक जैसे देखा नील नदी है, इजिप्त में! कई मीलों तक जमीन के ऐसी घड़ी आती है जब उत्सव भी शांत हो जाता है। नीचे ही बहती है, दिखायी नहीं पड़ती। फिर प्रगट होती है। तो भीतर-भीतर, भीतर-भीतर रग-रोएं में समा जाता है। नाच भी | सदियां हो गयीं, लोगों को पता ही न था कि इसका जन्म-स्रोत नहीं होगा-नाच इतना गहरा हो जाता है। कोई क्रिया ऊपर कहां है, यह उदगम कहां है! क्योंकि कई मीलों तक तो वह दिखायी न पड़ेगी। जमीन के नीचे ही बहती है तो उदगम का पता कैसे चले? पहले तो शौके-दीद में सब कुछ भुला दिया मीरा ऐसी है जैसे नील नदी प्रगट हो गयी। और महावीर ऐसे अब में नजर को ढूंढ़ रहा हूं, नजर मुझे। | हैं जैसे नील नदी अभी जमीन के नीचे बहती है। नाच तो है ऐसी घड़ी आती है कि अपना ही पता नहीं चलता। ही-लेकिन नाच बड़ा मौन है, चुप है, बड़ा गरु-गंभीर है! पहले तो शौके-दीद में सब कुछ भुला दिया-पहले तो उस कठिनाई होगी। ये प्रतीक्षा के पल पीड़ा के पल भी होंगे। परमात्मा को देखने की आकांक्षा में सब भुला बैठे। लेकिन उस कभी-कभी तो ऐसा लगेगा, कुछ खो तो नहीं गया। पहले तो सब भुलाने में नजर भी खो जाती है। अब मैं नजर को ढूंढ़ रहा बड़े आनंदित मालूम हो रहे थे; वह आनंद भी चला गया। पहले हूं, नजर मुझे। अब कुछ समझ में नहीं आता कौन कहां है, कौन तो बड़े नाचे-नाचे मालूम पड़ते थे; वह पुलक चली गयी। कहीं कौन है? कुछ खो तो नहीं गया! आखिरी घड़ी में कुछ भी पता नहीं चलता भेद का : कौन भक्त | शबे-इंतजार की कशमकश न पूछ कैसे सहर हुई 529] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340124
Book TitleJinsutra Lecture 24 Mang Nahi Ahobhav Ahogati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size28 MB
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