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________________ जिन सूत्र भागः 1 इस सूत्र में कुछ बातें समझने जैसी हैं। और दुख की थोड़े ही जरूरत है कि तुम दुख का आयोजन करो 'यदि तू भवसागर के पार जाना चाहता है...।' कि तुम भूखे खड़े रहो, कि धूप में खड़े रहो, कि शरीर को इस संसार को हमने भवसागर कहा है। भवसागर का अर्थ गलाओ, कि सड़ाओ, इस सब की कोई जरूरत नहीं है। यह तो होता है जहां होने की तरंगें उठती रहती हैं। भव यानी होना। फिर तुमने एक नया राग-द्वेष बो दिया। पहले तुम सुख मांगते जहां हम मिट-मिटकर होते रहते हैं। जहां लहर मिटती नहीं कि थे, अब तुम दुख मांगने लगे-मगर मांग जारी रही। पहले तुम फिर उठ आती है। जहां एक वृक्ष गिरा नहीं कि हजार बीज छोड़ कहते थे, महल चाहिए; अब अगर तुम्हें महल में ठहरना पड़े तो जाता है। जहां तुम जाने के पहले ही अपने आने का इंतजाम बना | तुम रुक नहीं सकते महल में, तुम कहते हो, अब तो सड़क जाते हो। जहां मरते-मरते तुम जीवन के बीज बो देते हो। जहां चाहिए-मगर चाहिए कुछ जरूर! पहले तुम कहते थे, सुस्वादु एक असफलता मिलती है, वहां तुम दस सफलताओं के सपने भोजन चाहिए; अब अगर सुस्वादु भोजन मिल जाये तो तुम लेने देखने लगते हो। जहां एक द्वार बंद होता है, तुम दूसरा खोलने को तैयार नहीं हो। तुम कहते हो, अब तो कंकड़-पत्थर, मिट्टी लगते हो। उसमें मिला ही होना चाहिए, तो ही हमें सुपाच्य होगा। भवसागर का अर्थ है : जहां होने की तरंगें उठती रहती हैं, दुख को चुनना नहीं है। आये दुख को स्वीकार कर लेना तप उठती रहती हैं-अंतहीन! है। आये दुख को ऐसे स्वीकार कर लेना कि दुख भी मालूम न 'यदि तू इस घोर भवसागर के पार जाना चाहता है'...यदि | पड़े, तप है। अगर तुमने मांगा तो मांग तो जारी रही। कल तुम तुझे दिखाई पड़ने लगा है कि जीवन दुख है, पीड़ा है, संताप है; सुख मांगते थे, अब दुख मांगने लगे; कल तुम कहते थे धन अगर तूने इससे मुक्त होना चाहा है...'तो हे सुविहित। शीघ्र ही मिले, अब तुम कहते हो कि त्याग; कल तुम कहते थे संसार, तप-संयमरूपी नौका को ग्रहण कर।' शीघ्र ही...। अब तुम कहते हो, नहीं संसार नहीं: हिमालय भाग रहे तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। हो-लेकिन कहीं जाना रहा, कोई दिशा रही। तो तव संजमभंडं, सुविहिय गिण्हाहि तूरंतो।। महावीर के तप का अर्थ है : जो अपने से होता हो उसे तुम तुरंत ! शीघ्र। एक क्षण भी खोये बिना! क्योंकि जितनी देर भी स्वीकार कर लेना। दुख तो हो ही रहा है–दख ही हो रहा है. त क्षण खोता है निर्णय करने में, उतनी ही देर में भवसागर नयी और कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम स्वीकार भर कर लेना। उसी तरंगें उठाये जाता है। जितना तू स्थगित करता है उतनी देर खाली | स्वीकार में तुम्हारा याचक रूप तिरोहित हो जायेगा, तुम्हारा नहीं जाता संसार; नयी इच्छायें, नयी वासनायें, तेरे घर में भिखमंगा मिट जायेगा, तुम सम्राट हो जाओगे। घोंसला बना लेती हैं, तेरे वृक्ष पर डेरा बना लेती हैं। शीघ्र ही! जिसने दुख स्वीकार कर लिया, उसके भीतर एक महाक्रांति तत्क्षण! जिस क्षण यह समझ में आ जाये कि जीवन दुख है, घटित होती है। उसकी सुख की मांग तो रही नहीं; नहीं तो दुख उसी क्षण तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर। | स्वीकार न कर सकता था। और जिसने दुख स्वीकार कर लिया, तप का अर्थ महावीर की भाषा में क्या है? दुख को स्वीकार | उसे दुख दुख न रहा। कर लेना तप है। दुख को अस्वीकार करना भोगी की मनोदशा इसे तुम थोड़ा प्रयोग करना। सिर में दर्द हो तो तुम उसे है। भोगी कहता है, दुख को मैं स्वीकार न कर सकूँगा, मुझे सुख स्वीकार करके किसी दिन देखना। बैठ जाना शांत, लेट जाना, चाहिए! तपस्वी कहता है, दुख है तो दुख को स्वीकार करूंगा, स्वीकार कर लेना कि सिर में दर्द है, उससे भीतर कोई संघर्ष मत मुझे अन्यथा नहीं चाहिए! जो है वह मुझे स्वीकार है। करना, भीतर यह भी मत कहना कि न हो। है तो है। जो है वह इसे थोड़ा समझना, क्योंकि महावीर की परंपरा, महावीर के है। उसे स्वीकार कर लेना। उसे साक्षी-भाव से देखते रहना। अनुयायी इसे बड़ा गलत समझे। महावीर के अनुयायी समझे कि तुम चकित होओगे: कभी-कभी साक्षी-भाव सधेगा, उसी क्षण जैसे दुख पैदा करना है। दुख पैदा करने की जरूरत नहीं में तुम पाओगे सिरदर्द खो गया। जब साक्षी-भाव छूट जायेगा, है-दुख काफी है, काफी से ज्यादा है। होना ही दुख है; अब तुम पाओगे, फिर सिरदर्द आ गया! एक बड़ा क्रांतिकारी Jalm Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.340105
Book TitleJinsutra Lecture 05 Param Aushadhi Sakshi Bhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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