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________________ REPARAT परम औषधि : साक्षी-भाव AM महावीर ने परमात्मा को हटा लिया ताकि तुम सावधान हो अटके रहोगे। कारागृह या तो पूरा कारागृह है और या फिर पूरा सको। कोई सहारा न होगा तो तुम सावधान होओगे ही; क्योंकि घर है। इससे कम में काम न चलेगा। अगर तुमने कहा कि फिर सावधानी ही सहारा है। और कोई दूसरा तुम्हें जन्म नहीं दे | माना, पूरा कारागृह तो कारागृह है, लेकिन यह दीवाल कारागृह रहा है; तुम ही अपने राग-द्वेष से...। नहीं है। इसके पास बैठकर बड़ी शांति मिलती है। मगर यह रण के दख से ग्रस्त जीव को दीवाल भी कारागृह के भीतर है। तुमने कहा, 'और स कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही उपादेय है।' | है, लेकिन यह पहरेदार बड़ा भला है, मुस्कुराता है कभी-कभी, रत्तीभर भी सुख नहीं है। इस संबंध में महावीर अत्यंत कभी दो बात भी कर लेता है। और सब तो बरा है, लेकिन यह अतिवादी हैं। वे कहते हैं, रत्तीभर भी सुख नहीं है। और तुम्हें पहरेदार भी तो इसी कारागृह का हिस्सा है! अगर कभी-कभी सुख मालूम होता है तो तुम्हारी धारणा है, तो जिंदगी में कभी-कभी मुस्कुराहटें भी होंगी। खयाल तुम्हारी मान्यता है। इसलिए जल्दी ही तुम्हारी मान्यता टूट रखना, ये भी कारागृह के ही हिस्से हैं। और कभी-कभी जायेगी। तुम पाओगे: सुख गया। प्रसन्नतायें भी होंगी; लेकिन ये भी कारागृह के ही हिस्से हैं। दुनिया में कोई गम के अलावा खुशी नहीं कभी-कभी दीये जले हुए भी मालूम पड़ेंगे, क्योंकि अगर दीये वो भी हमें नसीब कभी है, कभी नहीं। बिलकुल न जलें तो तुम सभी अंधेरे को छोड़कर बाहर भाग दुख इतना गहन है कि दुख भी सदा नसीब नहीं होता। जाओगे। थोड़ी आशा का दीप जलता रहना चाहिए। तुम्ही कभी-कभी तुम ऐसी हालत में होते हो कि दुख भी नहीं जलाये रहते हो-अपनी ही वासना का तेल डाल-डालकर, होता-इतने खाली, इतने रिक्त ! इसलिए तो लोग दुख को ईंधन डाल-डालकर। तुम्हीं सोचते रहते हो। पकड़े रखते हैं : सुख न सही, दुख तो है, कुछ तो है! तुमने कारागृह में देखा! मैं कभी-कभी कारागृह जाया करता कभी-कभी ऐसी घड़ियां भी आती हैं : सुख तो है ही नहीं, दुख | था-कैदियों से मिलने। एक प्रांत के गवर्नर मेरे मित्र थे, तो भी नहीं है। तब महादुख की घड़ी आती है। तब तुम एकदम उन्होंने मुझे पास दिया हुआ था, उस प्रांत के सारे कारागृहों में मैं राख हो जाते हो। जीने में कुछ भी सार नहीं रह जाता—इतना भी जा सकता था। वहां मैं बड़ा चकित होता! लोग कारागृह में सार नहीं रह जाता कि दुख है, कम से कम इससे लड़ना है, इसे | अपनी कोठरी को भी सजा लेते हैं। कुछ न मिले, अखबार से मिटाना है। दुख भी नहीं है। एक बड़ी गहन ऊब, एक गहन फिल्म ऐक्टर-ऐक्ट्रेस की फोटो निकालकर चिपका लेते हैं। बोरडम, राख-राख सब हो जाता है! हृदय में कोई धड़कन सोचो थोड़ा! उसको भी घर बना लेते हैं। साफ-सुथरा रखते हैं नहीं। श्वासों में कोई कंपन नहीं। जीवन का कोई प्रवाह नहीं, | अपनी कोठरी को। कोई अपनी रामायण ले आता है अपने साथ, कोई ऊर्जा नहीं। उठ आते हो, एक धक्के में ! उठना पड़ता है, कोई अपनी बाइबिल रख लेता है-मगर यह सब कारागृह का सुबह हो गई। रात सो जाते हो, क्योंकि रात हो गई। जिंदा रहते हिस्सा है। हो, क्योंकि रहना ही पड़ेगा जब तक मौत न आये। करोगे | यह पूरा कारागृह ही छोड़ने योग्य है। पूरा छोड़ने योग्य है, तो क्या? ऐसे धक्के में चलते चले जाते हो। ही छोड़ने योग्य क्षमता पैदा होगी तुममें, अन्यथा नहीं पैदा होगी। महावीर कहते हैं. यहां कोई भी सख नहीं है। क्योंकि रत्तीभर इसलिए महावीर कहते हैं. 'इस संसार में जन्म. जरा और भी तम्हें आशा रहे कि थोड़ा भी है, एक प्रतिशत भी है, तो भी मरण के दुख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है। अतः मोक्ष ही तुम जकड़े रहोगे। उपादेय है।' वह एक प्रतिशत भी काफी रहेगा तुम्हें रोकने को। मोक्ष का अर्थ है: कारागृह से मुक्ति; राग-द्वेष के बंधन से ऐसा समझो कि तुम कारागृह में बंद हो। अगर तुम मानते हो | मुक्ति; मूर्छा, मोह से मुक्ति। कि कारागृह में थोड़ी-सी जमीन है जो कारागृह नहीं है, तो फिर 'यदि तू घोर भवसागर के पार जाना चाहता है तो हे सुविहित! तुम कारागह के बाहर न जा सकोगे; कम से कम उसी जमीन में | शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर।' 103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340105
Book TitleJinsutra Lecture 05 Param Aushadhi Sakshi Bhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Jinsutra_MP3_and_PDF_Files
File Size37 MB
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