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________________ पाप क्या है, पुण्य क्या है; कृत्य जो हम करते हैं, उसमें पाप है या कर्ता में, जो करता है उसमें; चोरी में पाप है या चोर की भावदशा में? दान में पुण्य है या दानी की अंतश्चेतना में ? कृत्य महत्वपूर्ण है या भीतर का अभिप्राय ? और अभिप्राय से भी ज्यादा भीतर की चेतना-मनुष्य के लिए पुराने से पुराना शाश्वत सवाल है। नीति कृत्य का विचार करती है; क्या न करें, क्या करें। धर्म कर्ता का विचार करता है; करनेवाला कैसा हो, कैसा न हो। जब पहली बार उपनिषदों का पश्चिमी भाषाओं में अनुवाद हुआ तो वहां के विचारक बड़े हैरान हुए, क्योंकि उनमें दस आज्ञाओं, टेन कमांडमेंट्स की तरह कोई भी बातें नहीं हैं। चोरी मत करो; व्यभिचार मत करो; न करो, या करो—ऐसा कोई आदेश नहीं है। और यहूदी और ईसाई धर्म तो करने के आदेश पर ही खड़े हैं। दस आज्ञाएं मोसेस की, वे ही आधार-स्तंभ हैं। ___ उपनिषदों में भी उन्होंने सोचा कि कुछ आज्ञाएं होंगी, लेकिन कोई आज्ञाएं नहीं थीं। उन्हें लगा कि शायद उपनिषद धर्मग्रंथ नहीं हैं। लेकिन उपनिषद धर्मग्रंथ हैं। उपनिषद की दृष्टि से कृत्य की आज्ञा देना या न देना नीति का काम है, धर्म का नहीं। और नैतिक उसे होना पड़ता है जो धार्मिक नहीं है। इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लें। नैतिकता एक सब्सटिट्यूट है, एक परिपूरक है। जो व्यक्ति धार्मिक नहीं है, उसे नीति की जरूरत है। जो व्यक्ति धार्मिक है, उसे नीति की कोई भी जरूरत न रही। इसका यह अर्थ नहीं कि वह अनैतिक हो जायेगा। इसका यह अर्थ है कि उसने नीति का इतना मूल स्त्रोत पा लिया है कि अब ऊपरी व्यवस्था और नियम की कोई आवश्यकता नहीं रही। ___ ऐसा समझें, एक अंधा आदमी है, तो लकड़ी से टटोलकर चलता है। आंखवाला आदमी लकड़ी से टटोलकर नहीं चलता। क्योंकि लकड़ी से टटोलने की जरूरत है, आंख न हो तो। आंख हो तो लकड़ी से टटोलने की जरूरत नहीं है। अगर अंधे आदमी को हम समझायें कि जब तेरी आंख ठीक हो जायेगी तो तू लकड़ी फेंक देगा, तो वह बहुत हैरान होगा। वह कहेगा, बिना लकड़ी के मैं चलूंगा कैसे? जीवनभर लकड़ी से ही चला है। लकड़ी उसकी आंख हो गयी है। लेकिन लकड़ी क्या आंख हो सकती है ? वह तो बस कामचलाऊ है। नीति कभी धर्म नहीं है, कामचलाऊ लकड़ी है जो अधार्मिक आदमी के हाथ में पकड़ानी पड़ती है। जिसके पास भीतर की आंख नहीं है, उसे बाहर के नियम पकड़ाने पड़ते हैं। और जिसके पास भीतर की आंख है, उसे बाहर के नियम पकड़ाने की कोई भी जरूरत 487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340051
Book TitleMahavir Vani Lecture 51 Pahle Gyan Bad me Daya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size86 MB
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