________________ मोक्षमार्ग-सूत्र : 1 कहं चरे ? कहं चिट्ठे ? कहमासे ? कहं सए ? कहं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधइ ? जयं चरे जयं चिट्टे जयमासे जयं सए / जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बन्धइ / / सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भयाइं पासओ। पिहियासवस्स दन्तस्स पावं कम्मं न बंधइ / / पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किं वा नाहिइ छेय-पावगं? सोच्चा जाणइ कल्लाणं सोच्चा जाणइ पावगं / उभयं पि जाणइ सोच्चा, जं छेयं तं समायरे / / भन्ते ! साधक कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोये ? कैसे भोजन करे ? कैसे बोले-जिससे कि पाप-कर्म का बंध न हो? आयुष्मन ! साधक विवेक से चले; विवेक से खड़ा हो; विवेक से बैठे; विवेक से सोये; विवेक से भोजन करे; और विवेक से ही बोले, तो उसे पाप-कर्म नहीं बांध सकता। जो सब जीवों को अपने समान समझता है, अपने-पराये, सबको समान दृष्टि से देखता है, जिसने सब आस्रवों का निरोध कर लिया है, जो चंचल इंद्रियों का दमन कर चुका है, उसे पाप-कर्म का बंधन नहीं होता। पहले ज्ञान है, बाद में दया। इसी क्रम पर समग्र त्यागी वर्ग अपनी संयम-यात्रा के लिए ठहरा हुआ है। भला, अज्ञानी मनुष्य क्या करेगा? श्रेय तथा पाप को वह कैसे जान सकेगा? सुनकर ही कल्याण का मार्ग जाना जाता है। सुनकर ही पाप का मार्ग जाना जाता है। दोनों ही मार्ग सुनकर जाने जाते हैं। बुद्धिमान साधक का कर्तव्य है कि पहले श्रवण करे और फिर अपने को जो श्रेय मालुम हो, उसका आचरण करे। 486 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.