________________ संग्रह : अंदर के लोभ की झलक है; देख सकती है। कान सुन सकता है। चुनेगा कौन? आप। लेकिन आपका तो कोई पता ही नहीं है। आप तो कहीं हैं ही नहीं। इसलिए जिंदगी में कोई चुनाव नहीं है। ___ आप कुछ भी पढ़ते हैं, कुछ भी सुनते हैं, कुछ भी देखते हैं, वह सब आपके भीतर जा रहा है। और आपके कचरे का एक ढेर बना देता है। अगर आपके मन को उघाड़कर रखा जा सके बाहर तो कचरे का एक ढेर मिलेगा, जिसमें कोई संगति न मिलेगी। कबाड, कछ भी इकट्ठा कर लिया है। इकट्ठा करते वक्त सोचा भी नहीं। आप अपने घर में एक चीज लाने में जितना विचार करते हैं कि ले जाना कि नहीं, जगह घर में है या नहीं, कहां रखेंगे, क्या करेंगे, उतना भी विचार मन के भीतर ले जाने में आप नहीं करते। जगह है भीतर? वह भी कभी नहीं सोचते। जो ले जा रहे हैं वह ले जाने योग्य है? वह भी कभी नहीं सोचते। कुछ भी। कभी आपने किसी आदमी से कहा है कि अब बातचीत आप जो कर रहे हैं, बंद कर दें, मेरे भीतर मत डालें। कभी नहीं कहा है। कछ भी कोई आपके भीतर डाल सकता है। आप कोई टोकरी हैं, कचरे की? जिसमें कोई भी कछ डाल सकता है। आपके घर में पड़ोसी कचरा फेंके तो आप पुलिस में रिपोर्ट कर देंगे, और पड़ोसी आपकी खोपड़ी में रोज कचरा फेंकता है, आपने कभी कोई रिपोर्ट नहीं की है। बल्कि एक दिन न फेंके तो आपको लगता है, दिन खाली-खाली जा रहा है। आओ, फेंको। नहीं, हमें होश ही नहीं कि हम भीतर क्या ले जा रहे हैं। आंख, न तो फोड़नी उचित है और न जरूरत से ज्यादा खोलनी उचित है। इसलिए महावीर ने तो कहा है कि साधु इतना देखकर चले जितना आवश्यक है। महावीर ने कहा है कि आंख चार फीट देखे, चलते वक्त भिक्षु की। अगर आंख चार फीट देखे, तो उसका मतलब हुआ आप को नाक का अग्र हिस्सा दिखायी पड़ता रहेगा, बस। आंख झुकी होगी, चार फीट देखेगी। क्योंकि महावीर ने कहा है, चलने के लिए चार फीट देखना काफी है। फिर आगे बढ़ जाते हैं, चार फीट फिर दिखायी पड़ने लगता है, इतना काफी है। कोई दूर का आकाश चलने के लिए देखना आवश्यक नहीं है। उतना देखें, जितना जरूरी हो, काम के लिए। उतना सुनें जितना जरूरी हो, उतना बोलें जितना जरूरी हो, तो इसके परिणाम होंगे। __इसके दो परिणाम होंगे-एक तो व्यर्थ आपके भीतर इकट्ठा नहीं होगा वह आपकी शक्ति क्षीण करता है। दूसरा आपकी शक्ति बचेगी। वह शक्ति ही आपके उर्ध्वगमन के लिए मार्ग बनने वाली है। उसी शक्ति के सहारे आप अंतर की यात्रा पर निकलेंगे। ___ हम तो करीब-करीब एक्झास्टेड हैं, खत्म हैं। कुछ बचता ही नहीं सांझ होते-होते, दिनभर में सब चुक जाता है। सांझ हम चुके चुकाये, चली हुई कारतूस की तरह अपने बिस्तर पर गिर जाते हैं। मगर रात भर भी हम शक्ति को इकट्ठा नहीं कर रहे हैं, खर्च कर रहे हैं। इसलिए एक मजे की घटना घटती है, लोग थके हुए बिस्तर में जाते हैं और सुबह और थके हुए उठते हैं। रात भी सपने चल रहे हैं और हम थक रहे हैं। हमारी जिंदगी एक लंबी थकान बन जाती है। एक शक्ति का संचयन नहीं। और जहां शक्ति नहीं है, वहां कुछ भी नहीं हो सकता। तो दो परिणाम हैं-एक तो व्यर्थ इकट्ठा न हो, हमारे भीतर स्पेस, खाली जगह चाहिए। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, उस आदमी का आत्मा से कोई संबंध नहीं हो सकता। जिस आदमी के भीतर आकाश नहीं है, वह उस परमात्मा के अतिथि को निमंत्रण भी नहीं भेज सकता। उसके भीतर वह मेहमान आ जाये तो ठहराने की जगह भी नहीं है। __ भीतरी आकाश, इनर स्पेस, धर्म की अनिवार्य खोज है। हम जिसे बुला रहे, जिसे पुकार रहे, जिसे खोज रहे, उसके लायक हमारे भीतर जगह होनी चाहिए। स्थान होना चाहिए। वह रिक्तता बिलकुल नहीं है। अ / परमात्मा की भी सामर्थ्य नहीं, लोग कहते हैं कि सर्वशक्तिमान है, मगर आपके भीतर घुसने की उसकी भी सामर्थ्य नहीं। जगह ही नहीं है वहां और शायद इसलिए आप भी अपने भीतर नहीं जा पाते, बाहर घूमते रहते हैं। वहां जगह तो चाहिए। और वहां आपने क्या भर रक्खा -41. 11 HD - 1 - 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org