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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 है, यह कभी आपने सोचा? __ कभी दस मिनट बैठ जायें और एक कागज पर जो आपके मन के भीतर चलता हो, उसको लिख डालें, तब आपको पता चलेगा, आपने क्या भीतर भर रखा है कहीं कोई फिल्म की कड़ी आ जायेगी कहीं पड़ोसी के कुत्ते का भौंकना आ जायेगा, कहीं रास्ते पर सुनी हुई कोई बात आ जायेगी, पता नहीं क्या-क्या कचरा वहां सब इकट्ठा है। और इस पर शक्ति व्यय हो रही है। चाहे आप फिल्म की एक कड़ी दोहराते हों और चाहे आप प्रभु का स्मरण करते हों, एक शब्द का भी भीतर उच्चारण शक्ति का ह्रास है। फिर उसका क्या उपयोग कर रहे हैं, यह आप पर निर्भर है। अगर व्यर्थ ही खोते चले जा रहे हैं, तो आखिर में जीवन के अगर आप पायें, आप सिर्फ खो गये, कुछ पाया नहीं, तो इसमें आश्चर्य नहीं है। ___ हमारी मृत्यु अकसर हमें उस जगह पहुंचा देती है जहां अवसर था, शक्ति थी, लेकिन हम उसे फेंकते रहे। कुछ सृजन नहीं हो पाया। हमारी मृत्यु एक लंबे विध्वंस का अंत होती है, एक लंबे आत्मघात का अंत, एक सृजनात्मक, एक क्रिएटिव घटना नहीं। महावीर की सारी उत्सुकता इसमें है कि भीतर एक सृजन हो जाये, वह सृजन ही आत्मा है। इस सूत्र को हम समझें। 'प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों के रखने को परिग्रह नहीं बतलाया है।' महावीर ने नहीं कहा है कि आपके पास कुछ चीजें हैं तो आप परिग्रही हैं। महावीर ने यह भी नहीं कहा है कि आप सब चीजें छोड़कर खड़े हो गये तो आप अपरिग्रही हो गये, कि आपने सब वस्तुओं का त्याग कर दिया। __ वस्तुएं हैं, इससे कोई गृहस्थ नहीं होता; और वस्तुएं नहीं हैं, इससे कोई साधु नहीं होता। लेकिन अधिक साधु यही करते रहते हैं। कितनी कम वस्तुएं हैं, इससे सोचते हैं कि साधुता हो गयी। साधुता या गृहस्थ्य महावीर के लिए आंतरिक घटना है। वे कहते हैं, वस्तुओं में कितनी मूर्छा है, कितना लगाव है। इन सामग्रियों में आसक्ति, ममता, मूर्छा रखना ही परिग्रह है। ___ मूर्छा परिग्रह है। बेहोशी परिग्रह है, बेहोशी का क्या मतलब है? होश का क्या मतलब है? जब आप किसी चीज के लिए जीने लगते हैं, तब बेहोशी शुरू हो जाती है। एक आदमी धन के लिए जीता है, तो बेहोश है। वह कहता है, मेरी जिंदगी इसलिए है कि धन इकट्ठा करना है। धन मेरे लिए है, ऐसा नहीं, धन किसी और काम के लिए है, ऐसा भी नहीं, मैं धन के लिए हूं। मुझे धन इकट्ठा करना है। मैं एक मशीन हूं, एक फैक्ट्री हूं, मुझे धन इकट्ठा करना है। ब एक आदमी वस्तओं को अपने से ऊपर रख लेता है. और जब एक आदमी कहने लगता है कि मैं वस्तओं के लिए जी रहा हूं, वस्तुएं ही सब कुछ हैं, मेरे जीवन का लक्ष्य, साध्य-तब मूर्छा है। लेकिन हम सारे लोग इसी तरह जीते हैं। छोटी-सी चीज आपकी खो जाये तो ऐसा लगता है, आत्मा खो गयी। कभी आपने खयाल किया? उस चीज का कितना ही कम मूल्य क्यों न हो, रात नींद नहीं आती। चिंता भीतर मन में चलती हैं। दिनों तक पीछा करती है। एक छोटी-सी चीज का खो जाना। ___ बच्चों जैसी हमारी हालत है। एक बच्चे की गुड़िया टूट जाये तो रोता है, छाती पीटता है। मुश्किल हो जाता है उसे यह स्वीकार करना कि गुड़िया अब नहीं रही। दो-चार दस दिन उसके आंखों में आंसू भर-भर आते हैं। लेकिन यह बच्चे की ही बात होती तो क्षम्य थी, बूढ़ों की भी यही बात है। जरा-सा कुछ खो जाये। यह बड़े मजे की बात है कि उसके होने से कभी कोई सुख न मिला हो, तो भी खो जाये, तो खोने से दुख मिलता है। ____ आपके पास कोई चीज है। जब तक थी, तब तक आपको उससे कोई सुख न मिला। आपकी तिजोड़ी में एक सोने की ईंट रखी है, उससे आपको कोई सुख नहीं मिला। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसकी वजह से आप नाचे हों, आनंदित हुए हों, ऐसा कभी नहीं 448 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340024
Book TitleMahavir Vani Lecture 24 Sangraha Andar ke Lobh ki Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size73 MB
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