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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 हमारे भीतर-जिसे हम प्रेम करते हैं उसके प्रति घणा भी होती है। क्योंकि एक इंद्रिय प्रेम करती है, एक घणा करती है। और हम इसमें कभी ताल-मेल नहीं बिठा पाते। तो ज्यादा से ज्यादा हम यही करते हैं कि हम हर इंद्रिय को रोटेशन में मौका देते रहते हैं। हमारी इंद्रियां रोटरी क्लब के सदस्य हैं। कभी आंख को मौका देते हैं तो वह मालकियत कर लेती है, तब। कभी कान को मौका देते हैं, तब वह मालकियत कर लेता है। लेकिन इनके बीच कभी कोई ताल-मेल निर्मित नहीं हो पाता। कोई संगति, कोई सामंजस्य, कोई संगीत पैदा नहीं हो पाता। इसलिए जीवन हमारा एक दुख हो जाता है। जब भीतर का मालिक जगता है, तो वही संगति है, वही ताल-मेल है, वही हार्मनी है। सारी इंद्रियां, सारथी जग गया, और लगाम हाथ में आ गयी और सारे घोड़े एक साथ चलने लगे। उनकी गति में एक लय आ गयी। एक दिशा, एक आयाम आ गया। ___ मूर्छित मनुष्य इंद्रियों के द्वारा अलग-अलग रास्तों पर खींचा जाता है। जैसे एक ही बैलगाड़ी अलग-अलग रास्तों पर, चारों तरफ जुते हुए बैलों से खींची जा रही हो। यात्रा नहीं हो पाती घसीटन होती है, और आखिर में सब अस्थि पंजर ढीले हो जाते हैं। कुछ परिणाम नहीं निकलता। जीवन निष्पत्तिहीन होता है, निष्कर्षरहित होता है। रस परित्याग का अर्थ है-इंद्रियों की मालकियत का परित्याग, इंद्रियों का परित्याग नहीं। आंख नहीं फोड़ लेनी, कान नहीं फोड़ देना। वह तो मूढ़ता है। हालांकि वह आसान है। आंख फोड़ने में क्या कठिनाई है? जरा-सा जिद्दी स्वभाव चाहिए, जोश चाहिए, हठवादिता चाहिए। आंख फोड़ी जा सकती है। सोच-विचार नहीं चाहिए, आंख आसानी से फोड़ी जा सकती है। और फूट गयी, तो फिर तो कोई उपाय नहीं है। लेकिन रस इतना आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। रस लंबा संघर्ष है, बारीक है, डेलिकेट है, सूक्ष्म है, नाजुक है और सतत। आंख तो एक बार में फोड़ी जा सकती है, रस जीवन भर में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे छोड़ा जा सकता है। इसलिए त्यागियों को आसान दिखा आंख का फोड़ लेना। कोई हिम्मतवर है, इकट्ठी फोड़ लेते हैं, कोई उतने हिम्मतवर नहीं हैं तो धीरे-धीरे फोडते हैं। कोई उतने हिम्मतवर नहीं तो फोडते नहीं, सिर्फ आंख बंद करके जीने लगते हैं। लेकिन वह हल नहीं है। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि आप नाहक ही आंख खोलकर जीयें। अधिक लोग नाहक आंख खोल कर जीते हैं। रास्ते से जा रहे हैं, तो दीवारों पर लगे पोस्टर भी उनको पढ़ने ही पड़ते हैं। वह नाहक आंख खोलकर जीना है। जिससे कोई प्रयोजन न था, जिससे कोई अर्थ न था और जिस पोस्टर को हजार दफे पढ़ चुके हैं क्योंकि उसी रास्ते से हजार बार गुजर चुके हैं। आज फिर उसको पढ़ेंगे। .. पता नहीं, हमारी आंख पर हमारा कोई भी वश नहीं मालूम होता, इसलिए ऐसा हो रहा है। लेकिन उस पोस्टर को पढ़ लेना सिर्फ पढ़ लेना ही नहीं है, वह आपके भीतर भी जा रहा है और आपके जीवन को प्रभावित करेगा। ऐसा कुछ भी नहीं है जो आप भीतर ले जाते हैं जो आपको प्रभावित न करे। सब भोजन है-चाहे आप आंख से पोस्टर पढ़ रहे हों, वह भी भोजन है, वह भी आपके भीतर जा रहा है। __ शंकर ने इन सबको ही आहार कहा है। कान से जो सुनते हैं, वह कान का भोजन है। मुंह से जो लेते हैं, वह मुंह का भोजन है। आंख से जो देखते हैं, वह आंख का भोजन है। इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप व्यर्थ ही आंख खोलकर चलते रहें कि व्यर्थ ही कान खोलकर बाजार के बीच में बैठ जायें। होश रखना जरूरी है। जो सार्थक है, उपादेय है, उसे ही भीतर जाने दें। जो निरर्थक है, निरुपादेय है, घातक है, उसे भीतर न जाने दें। चुनाव जरूरी है, और चुनाव के साथ मालकियत निर्मित होती है। कौन चुने? लेकिन, आंख के पास चुनने की कोई क्षमता नहीं 446 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.340024
Book TitleMahavir Vani Lecture 24 Sangraha Andar ke Lobh ki Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages1
LanguageHindi
ClassificationAudio_File, Article, & Osho_Rajnish_Mahavir_Vani_MP3_and_PDF_Files
File Size73 MB
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