________________ महावीर-वाणी भाग : 1 कोई आशा नहीं दिखायी पड़ती आगे। धन बड़े विषाद में गिरा देता है; कष्ट में नहीं, दुख में गिरा देता है। इसलिए दुख जो है वह समृद्ध आदमी का लक्षण है, कष्ट जो है गरीब आदमी का लक्षण है। और कष्ट और दुख, भाषाकोश में भले ही उनका एक ही अर्थ लिखा हो, जीवन के कोष में बिलकुल विपरीत अर्थ हैं। और मजा यह है कि कष्ट कभी इतना कष्टपूर्ण नहीं है, जितना दुख। क्योंकि दुख आंतरिक हताशा है और कष्ट बाहरी अभाव है। लेकिन भीतर आशा भरी रहती है आपको पता नहीं है कि आप खोज रहे हैं कि ईश्वर का दर्शन हो जाये, ईश्वर का दर्शन हो जाये। हो जाये किसी दिन तो उससे बड़ा दुख फिर आपको कभी न होगा। अगर आपने सारी आशाएं इसी पर बांध रखी हैं कि ईश्वर का दर्शन हो जाये। समझ लो कि किसी दिन ईश्वर आपसे मजाक कर दे-ऐसे वह कभी करता नहीं-और मोर मुकुट बांध कर, बांसुरी बजा कर आपके सामने खड़ा हो जाये, तो थोड़ी बहुत देर देखिएगा फिर! फिर क्या करिएगा? फिर करने को क्या है? फिर आप उससे कहेंगे कि आप तिरोधान हो जाओ, तब आप फिर पहले जैसे लुप्त हो जाओ ताकि हम खोजें।। __रवींद्रनाथ ने लिखा है कि ईश्वर को खोजा मैंने बहुत-बहुत जन्मों तक। कभी किसी दूर तारे के किनारे उसकी झलक दिखायी पड़ी, लेकिन जब तक मैं अपनी धीमी-सी गति से चलता-चलता वहां तक पहंचा, तब तक वह दूर निकल गया था। कहीं और जा चुका था। कभी किसी सूरज के पास उसकी छाया दिखी, और मैं जन्मों-जन्मों उसको खोजता रहा, खोज बड़ी आनंदपूर्ण थी। क्योंकि सदा वह दिखायी पड़ता था कि कहीं है।। फासला था। फासला पूरा हो सकता था। फिर एक दिन बड़ी मुश्किल हो गयी। में उसके द्वार पर पहुंच गया। जहां तख्ती लगी थी कि भगवान यहीं रहता है। बड़ा चित्त प्रसन्न हआ छलांग लगाकर सीढियां चढ गया। हाथ में सांकल लेकर ठोंकने जाता ही था दरवाजे पर, पुराने किस्म का दरवाजा होगा, कालबेल नहीं रही होगी। रवींद्रनाथ ने कविता भी लिखी, उसको काफी समय हो गया। कालबेल होती तो वह मुश्किल में पड़ जाते क्योंकि वह एकदम से बज जाती। सांकल हाथ में लेकर ठोंकने ही जाता था कि तभी मुझे खयाल आया कि अगर आवाज मैंने कर दी और दरवाजा खुल गया और ईश्वर सामने खड़ा हो गया, फिर! फिर क्या करिएगा? फिर तो सब अंत हो गया, फिर तो मरण ही रह गया हाथ में, फिर कोई खोज न बची; क्योंकि कोई आशा न बची। फिर कोई भविष्य न बचा, क्योंकि कुछ पाने को न बचा। ईश्वर को पाने के बाद और क्या पाइएगा? फिर मैं क्या करूंगा? फिर मेरा अस्तित्व क्या होगा? सारा अस्तित्व तो तनाव है, आशा का, आकांक्षा का, भविष्य का। जब कोई भविष्य नहीं, कोई आशा नहीं, कोई तनाव नहीं, फिर मैं क्या करूंगा? मेरे होने का क्या प्रयोजन है फिर? फिर मैं होऊंगा भी कैसे? वह तो होना बहुत बदतर हो जायेगा। रवींद्रनाथ ने लिखा है, धीमे से छोड़ दी मैंने वह सांकल कि कहीं आवाज हो ही न जाये। पैर के जूते निकालकर हाथ में ले लिए, कहीं सीढ़ियों से उतरते वक्त पग ध्वनि सुनायी न पड़ जाये। और जो मैं भागा हूं उस दरवाजे से, तो फिर मैंने लौटकर नहीं देखा। हालांकि अब मैं फिर ईश्वर को खोज रहा हूं, और मुझे पता है कि उसका घर कहां है। उस जगह को भर छोड़कर सब जगह खोजता हूं। ___ बहुत मनोवैज्ञानिक है, सार्थक है बात, अर्थपूर्ण है। आप जहां-जहां सम्मोहन रखते हैं, सम्मोहन का अर्थ-जहां-जहां आप सोचते हैं, सुख छिपा है, वहां-वहां पहुंचकर दुखी होंगे। क्योंकि वह आपकी आशा थी, जगत का अस्तित्व नहीं था। वह जगत का आश्वासन न था, आपकी कामना थी, वह आपने ही सोचा था, वह आपने ही कल्पित किया था, वह सुख आपने आरोपित किया था। दूर-दूर रहना, उसके पास मत जाना, नहीं तो वह नष्ट हो जायेगा। जितने पास जायेंगे उतनी मुसीबत होने लगेगी। 452 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org