________________
सकेगी और, फलस्वरूप, एक समन्वित, संतुलित समाज की नींव रखी जा सकेगी।
उपरोक्त सभी अवधारणाओं का शास्त्रीय विवेचन कर एक संपूर्ण विधा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया गया है। मुख्यतः, गांधी, विनोबा और कुमारप्पा ने अलग-अलग प्रसंगों पर इनकी चर्चा की है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है सहयोगी समाज और अपरिग्रहमूलक अहिंसक अर्थव्यवस्था का मूल स्रोत भारतीय जीवन दर्शन और उससे प्रभावित समाज व्यवस्था है। गांधी को इन विचारों को और परिपक्व करने की प्रेरणा पश्चिम के भी कई चिंतकों से, विशेषकर रस्किन, थोरो और, टॉलस्टॉय से भी मिली थी। वर्तमान अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के कारण अब मुख्य धारा से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने भी इस ओर सोचना शुरू किया है।
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
अनेकांत : अनेकांत की मौलिक दृष्टियां दो हैं-निरपेक्ष और सापेक्ष । अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए निरपेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। संबंधों का निर्धारण करने के लिए सापेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए।
अनेकांत का पहला सूत्र है सापेक्षता। प्रकृति के सभी अंगों को निरपेक्ष भाव से मात्र मनुष्य की आवश्यकता पूर्ति का साधन मानकर ही विकृति का विस्तार हो सकता है; संपन्न को विपन्न से निरपेक्ष मानकर ही सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा मिल सकता है; एक जाति को दूसरी जाति से निरपेक्ष मानकर ही परस्पर विरोधी हितों की कल्पना की जा सकती है; एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय से निरपेक्ष मानकर ही विरोध का ताना-बाना बुना जा सकता है। एक व्यक्ति, एक जाति, एक संप्रदाय और एक राष्ट्र, दूसरे व्यक्ति, दूसरी जाति, दूसरे संप्रदाय और दूसरे राष्ट्र से सापेक्ष होकर ही जी सकता है, सापेक्ष हितों को सिद्ध कर सकता है।
वर्गभेद और विरोधी हितों के सिद्धांत की सापेक्षता के संदर्भ में समीक्षा करना जरूरी है। सापेक्षता के आधार पर विरोधी हितों में भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है। विरोधी हितों की निरपेक्षता के आधार पर मीमांसा की जाए तो उसका फलित होता है संग्रह, परिग्रह, आसक्ति, संघर्ष, हिंसा और साधनशुद्धि के सिद्धांत का परिहार।
अनेकांत का दूसरा सूत्र है समन्वय। वह भिन्न प्रतीत होने वाले दो वस्तु-धर्मों में एकता की खोज का सिद्धांत है। जो वस्तु धर्म भिन्न हैं, वे सर्वथा भिन्न नहीं हैं। उनमें अभिन्नता भी है, एकांत भी है। उस अभिन्नता के सूत्र को जानकर ही समन्वय स्थापित किया जा सकता है। सृष्टि संतुलन (इकोलॉजी) का सिद्धांत समन्वय का सिद्धांत है, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के संबंध का सिद्धांत है। मैं अकेला हूं-इस सिद्धांत के आधार पर सृष्टि-संतुलन की स्थापना नहीं की जा सकती। मैं अकेला नहीं हूं, दूसरे का भी अस्तित्व है। हम दोनों में संबंध है। उस संबंध के आधार पर ही हमारी जीवन-यात्रा चलती है। इस संबंध की अवधारणा के आधार पर सृष्टि-संतुलन की व्याख्या की जा सकती है।
अनेकांत का तीसरा सूत्र है सह-अस्तित्व । जिसका अस्तित्व है, उसका प्रतिपक्ष अवश्यंभावी है-यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्। प्रतिपक्ष के बिना नामकरण नहीं होता और लक्षण का निर्धारण भी नहीं होता। चेतन और अचेतन में अत्यंताभाव है। चेतन कभी अचेतन नहीं होता और अचेतन कभी चेतन नहीं होता। फिर भी उनमें सह-अस्तित्व है। शरीर अचेतन है। आत्मा चेतन है। शरीर और आत्मादोनों एक साथ रहते हैं।
नित्य और अनित्य, सदृश और विसदृश, भेद और अभेद-ये परस्पर विरोधी हैं, फिर भी इनमें सह-अस्तित्व है। एक वस्तु में ये एक साथ रहते हैं। नित्य अनित्य से सर्वथा वियुक्त नहीं है और अनित्य नित्य से सर्वथा वियुक्त नहीं है।
यह सह-अस्तित्व का सिद्धांत जितना दार्शनिक है, उतना व्यावहारिक है। प्रणाली, रुचि, मान्यता-ये भिन्न-भिन्न होती हैं, इनमें विरोध भी होता है। सह-अस्तित्व का नियम इन सब पर लागू होता है। लोकतंत्र और अधिकनायकवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद-ये भिन्न विचार वाली राजनीतिक प्रणालियां हैं। इनमें सह-अस्तित्व हो सकता है। या तू रहेगा या मैं, हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते–यह एकांतवाद है। इस धारणा ने समस्या को जटिल बना दिया। एक धार्मिक विचारधारा के लोग यह सोचें-मेरे धर्म की विचारधारा को मानने वाला ही इस दुनिया में रहे, शेष सबको समाप्त कर दिया जाए-इस विचारधारा ने धार्मिक जगत की पवित्रता को नष्ट किया है। अपरिग्रह, सहभागिता, अहिंसा, मैत्री, भाईचारा-ये धर्म के प्रमुख अवदान हैं। एकांतवादी दृष्टिकोण ने जरूरत को इच्छा में, सहयोग को शोषण में, संयम को संग्रह में, सादगी को दिखावे में, मैत्री को शत्रुता में, अहिंसा को हिंसा में, भाईचारे को विरोध में बदलने की भूमिका निभाई है।
सह-अस्तित्व का सिद्धांत सहिष्णुता और वैचारिक स्वतंत्रता का मूल्य स्वीकार करता है। यदि हम सबको अपनी रुचि, अपने विचार, अपनी जीवन प्रणाली और अपने सिद्धांत में ही ढालने का प्रयत्न करें तो वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता अर्थहीन हो जाती हैं।
प्रकृति में नानात्व है। नानात्व प्रकृति का सौंदर्य भी है। यदि सब पेड़-पौधे एक जैसे हो जाएं, यदि सब पुष्प एक जैसे हो जाएं तो सौंदर्य की परिभाषा का भी कोई अर्थ नहीं रहता। अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का सिद्धांत सत्यं शिवं सुंदरं-तीनों के समन्वय का सिद्धांत है। यह समन्वय ही सह-अस्तित्व की आधार-भूमि बनता है।
समन्वय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की समीचीन व्याख्या कर सकते हैं।
(15)