SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | 164 जिनवाणी | 10 जनवरी 2011 || सान्निध्य का लाभ कैसे लिया जाए या उनकी संगति से अपना कल्याण कैसे हो, क्योंकि प्रायः सभी धर्मों में अपने गुरु को वन्दन करने की प्रवृत्ति है। यह प्रवृत्ति सामान्य रूप से सर्वत्र प्रचलित है साथ ही सभी दर्शनों में गुरु वन्दन का महत्त्व बताया है। जैन आगमों में भी गुरुओं की संगति के अभाव में सम्यग्दृष्टि आत्मा का भी पतन हो जाता है। इसका प्रमाण ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र में नंदनमणिहार का वर्णन है। उसने व्रत ग्रहण करने के बाद लम्बे समय तक संतों (गुरु) की संगति नहीं की। इससे वह अपने व्रतों और समकित से च्युत हो मिथ्यादृष्टि होकर तिर्यंच गति में चला गया। गुरु वन्दन से जीवन को दिशा मिलती है और दिशा से दशा बदलती है। गुरुवंदन से जिनवाणी सुनने को मिलती है। सुनने से ज्ञान होता है...इसी प्रकार इसका अन्तिम फल मोक्ष बताया है। उत्तराध्ययन सूत्र का 19वाँ अध्ययन इस बात का साक्षी है कि मात्र सद्गुरु दर्शन से ही मृगापुत्र को बोध प्राप्त हो गया था, मृगापुत्र ने सद्गुरु की न तो वाणी सुनी, न शंका-समाधान किया, मात्र दूरतः दर्शन से ही उनके जीवन लक्ष्य बदल गया। अह तत्थ अइच्छंतं, पासह समण-संजयं। तव-णियम-संजमधरं, सीलडं गुण-आगरं ।।5 ।। भावार्थ - इसके बाद राजकुमार ने नगर अवलोकन करते हुए तप, नियम और संयम को धारण करने वाले अठारह हजार शील के अंग रूप गुणों के धारक ज्ञानादि गुणों के भण्डार एक श्रमण संयत (जैन साधु) को राज-मार्ग पर जाते हुए देखा। तं पेहई मियापुत्ते, दिट्ठीय अणिमिसाट उ। कहिंमण्णेरिसं सवं, दिहपुटवं मट पुरा ।।6 ।। भावार्थ - मृगापुत्र उस मुनि को अनिमेष-दृष्टि से देखने लगा और मन में सोचने लगा कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार का रूप मैंने पहले कहीं अवश्य देखा है। साहस्स दरिसणे तस्स, अज्झावसाणम्मि-सोहणे। मोहं गयरस संतस्स, जाइसरणं समुप्पण्णं ।।7 ।। भावार्थ - उस साधु को देखने पर मोहनीय (चारित्र मोहनीय) कर्म के उपशांत (देश-उपशम) होने पर तथा अध्यवसायों (ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होने वाले आन्तरिक परिणामों) की विशुद्धि होने से मृगापुत्र को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। देवलोगचुओ संतो, माणुसं भवमागओ। सणिणाणे-समुप्पण्णे, जाई सरइ-पुराणियं ।।8।। भावार्थ - संज्ञिज्ञान-जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर वह मृगापुत्र अपने पूर्व-जन्म को स्मरण करने लगा कि मैं देवलोक से च्यव कर मनुष्य भव में आया हूँ। जाइसरणे समुप्पण्णे, मियापुत्ते महिड्डिट। सरह पोराणियं जाई, सामण्णं च पुराकयं ।।।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229968
Book TitleSadguru evam Unke Saniddhya ka Labh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherZ_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf
Publication Year2011
Total Pages13
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy