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|| 10 जनवरी 2011 ||
जिनवाणी (9) जीवन-निर्माता- वर्तमान समय में तीर्थंकर नहीं, गणधर नहीं, केवली नहीं, पूर्वधर नहीं इसलिए चतुर्विध संघ का भार सद्गुरु पर रहता है। सद्गुरु को परम पिता कहा है। जन्म देने वाला पिता होता है, लेकिन सद्गुरु कल्याण का मार्ग दिखाता है, इसलिए उन्हें भी परम पिता कहा है। सद्गुरु अर्थात् आचार्य के आगमों में छत्तीस गुण बताये गये हैं। गुणों को ही पूजा का कारण माना गया है। गुणों की महत्ता है। आचार्य नाम की जाति भी है। डाकोत भी अपने आपको आचार्य कहते हैं। नाम मात्र से आचार्यउपाध्याय तो कई हैं, लेकिन वे भाव से पूज्य नहीं होते।
तीन प्रकार के आचार्य होते हैं - कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। आचार्य में कलाचार्य के रूप में लोगों को धर्म से जोड़ने की अद्भुत कला होती है। इसके कारण लोग अपनी शंकाओं, जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने हेतु सद्गुरु के चरणों में आते हैं। इनके संसर्ग में जो आता है, उसे ये उन्नति के पथ पर बढ़ाते हैं। सद्गुरु शिल्पाचारी के रूप में कई व्यक्तियों के जीवन का निर्माण करते हैं। धर्माचार्य चतुर्विध संघ को कुशलतापूर्वक संभालते हैं। (10) प्राप्त शक्तियों का सदुपयोग- स्वस्थ जीवन की दो धारा है - लौकिक और लोकोत्तर। लौकिक धारा के अन्तर्गत रहने वाले जीवन को हम व्यावहारिक जीवन कह सकते हैं। लोकोत्तर जीवन जीने वाले के लिए आध्यात्मिक जीवन धारा का प्रयोग किया जा सकता है।
संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक प्राणी, जीवन को सर्वांगीण सफल बना ले, असम्भव है। विरले ही व्यक्ति अपने जीवन को ऊँचा बनाने में सफल होते हैं। व्यावहारिक व आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में यही बात है। प्रत्येक व्यक्ति में जीवन को सफल या निष्फल बनाने के लिए तीन शक्तियाँ होती हैं। इन्हीं शक्तियों से व्यक्ति अपने जीवन का सुखद निर्माण कर सकता है और दुःखद भी। वे तीन शक्तियाँ हैं - विद्या, धन और सत्ता, जो प्रत्येक व्यक्ति को अल्प या अधिक मात्रा में अवश्य मिलती हैं। पवित्र और महान् आत्माएँ इन तीनों शक्तियों का सदुपयोग करके जीवन को यशस्वी बना लेती हैं। ऐसी आत्मा होती है- सद्गुरु। वे अपना जीवन स्व-पर के कल्याण में ही समर्पित कर देते हैं। (11) अनुशासन प्रिय- सद्गुरु अनुशासन को बहुत महत्त्व देते हैं, पर साथ ही उनका मानना है कि पहले स्वानुशासन फिर परानुशासन करना चाहिए। अनुशासन का अर्थ स्वयं का स्वयं पर अनुशासन। सीमा (अनुशासन) में रह कर प्रत्येक व्यक्ति अपना आत्मोत्थान कर सकता है। अनुशासन आत्म प्रगति का प्राण है। अनुशासन साधना का परिधान है। आत्म-लक्ष्य-प्राप्ति की सफलता का यह पहला मंत्र है। अनुशासन किसी भी प्रमाद का बंध नहीं, बल्कि पापों का नाश करने वाला तंत्र है। अनुशासन से ही गुणों का विकास होता है। अतः सद्गुरु एक कुशल प्रशासक के रूप में स्वयं अनुशासन में रहते हैं और चतुर्विध संघ को अनुशासन में रखते हैं। सद्गुरु के सान्निध्य का लाभ कैसे लें?
उपर्युक्त वर्णित गुण जिन आचार्य या साधु में होते हैं, वे सद्गुरु कहलाते हैं। ऐसे सद्गुरु के
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