________________ * प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. * 206 भेदविज्ञान प्रात्मा का ज्ञान है और यही सामायिक है। स्वाध्याय तो जीवन का सार है। स्वाध्याय के बिना ज्ञान प्राप्त होना कठिन है। स्वाध्याय सत्शास्त्रों का अध्ययन है जिसमें आत्मज्ञान निहित हो, उसी के पढ़ने से स्वाध्याय होता है / स्वाध्याय का सीधा सादा अर्थ स्व (आत्मा) का अध्ययन है। जितना स्वाध्याय करते हैं उसका ध्यान में चिंतन करना, मनन करना अथवा आचरण में लाना, उसको आत्मसात करना, यही स्वाध्याय का फल है / यदि स्वाध्याय नहीं करोगे तो आत्मा के स्वरूप को कैसे जानोगे ? आत्मा के स्वरूप को जानने के दो मार्ग हैं। एक तो गुरु का उपदेश, दूसरा स्वाध्याय / हर समय, हर जगह, गुरु का सत्संग मिलना कठिन है। उसमें भी सद्गुरु की शोध कर उनका सत्संग करना ही सत् उपदेश है। वे ही आत्मा का स्वरूप बता सकते हैं जिन्होंने अपने में अनुभव कर लिया है। ऐसे सद्गुरु को प्राप्त करना सहज नहीं है।। सत्गुरु का सत्संग तो बहुत कम मिलता है, परन्तु सत्शास्त्र उपलब्ध कर सकते हैं / घर बैठे ही गंगा है। शास्त्रों में ज्ञान गंगा की धारा प्रवाहमान है। जितनी साधक की योग्यता होती है उतना वह ग्रहण कर सकता है। यदि थोड़ा थोड़ा ही ग्रहण किया जाय और वह नियमित किया जाय तो बहुत बड़ा ज्ञान प्राप्त हो सकता है। सत्शास्त्रों का स्वाध्याय अंधेरे में प्रकाश है। पर केवल पढ़ लेना ही स्वाध्याय नहीं है, पढ़कर चिंतन-मनन करें और वह चिंतन अनुभव में लावें तो वह स्वाध्याय लाभकारी हो सकता है, अनुभव में लाना बहुत कठिन है। जितना पढ़ते हैं उतना चिंतन में नहीं आता और जितना चिंतन में आता है उतना अनुभव में नहीं आता। अनुभव तो छाछ के भांडे में से मक्खन जितना भी नहीं होता है। वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावे विश्राम / रसस्वादत सुख उपजे, अनुभव याको नाम / / जो अनुभव में लिया जाता है वहाँ पर मन की पहुँच भी नहीं है। वहाँ पर पहुँचने में मन भी छोटा पड़ जाता है। वह अनुभव वचक की अभिव्यक्ति का विषय भी नहीं है। वह तो आत्मा का विषय है और उस विषय को प्राप्त कराने में स्वाध्याय सहायक हो सकता है। यही स्वाध्याय का महत्त्व है। -नवानियां (उदयपुर) राज० 000 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org