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श्रागम-टीका परम्परा को आचार्य श्री का योगदान
आगम-मनीषी प्राचार्य प्रवर श्री हस्तीमलजी म० सा० का आत्मजीवन तो आगम-दीप से आलोकित था ही, किन्तु वे उसका प्रकाश जन-जन तक पहुँचाने हेतु प्रयासरत रहे । इसी कारण आचार्य प्रवर आगमों की सुगम टीकाएँ प्रस्तुत करने हेतु सन्नद्ध हुए । प्राचार्य प्रवर का लक्ष्य आगम के गूढ़ार्थ को सरलतम विधि से प्रस्तुत करना रहा ।
डॉ० धर्मचन्द जैन
आचार्य श्री की दृष्टि आगम-ज्ञान को शुद्ध एवं सुगम रूप में संप्रेषित करने की रही । यही कारण है कि प्राचार्य प्रवर ने पूर्ण तन्मयता से आगमों प्रतियों का संशोधन भी किया । उन्हें संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, ग्रन्वय पूर्वक शब्दार्थ एवं भावार्थ से समन्वित कर सुगम बनाया । फलतः आचार्य प्रवर को युवावस्था में ही अपनी 'नन्दी सूत्र' आदि की टीकाओं से देशभर के जैन सन्तों में प्रतिष्ठित स्थान मिला । आचार्य श्री की सर्व प्रथम संस्कृतहिन्दी टीका 'नन्दी सूत्र' पर प्रकाशित हुई । उसके पश्चात् 'बृहत्कल्प सूत्र' पर सम्पादित संस्कृत टीका, 'प्रश्न व्याकरण सूत्र' पर व्याख्या एवं 'अन्तगडदसा सूत्र' पर टीका का प्रकाशन हुआ । जीवन के ढलते वर्षों में आपके तत्त्वावधान में लिखित ' उत्तराध्ययन सूत्र' एवं 'दशवैकालिक सूत्र' पर हिन्दी पद्यानुवाद के साथ व्याख्याएँ प्रकाशित हुईं। इस प्रकार आचार्य प्रवर ने दो अंग सूत्रों'प्रश्न व्याकरण' एवं 'अन्तगडदसा' पर तीन मूल सूत्रों 'नन्दी सूत्र' 'उत्तराध्ययन' एवं 'दशवेकालिक' पर तथा एक छंद सूत्र 'बृहत्कल्प' पर कार्य किया ।
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आगम-टीका परम्परा का एक लम्बा इतिहास है । पाँचवीं शती से अब तक अनेक संस्कृत, हिन्दी एवं गुजराती टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं । प्राचीन प्रमुख टीकाकार रहे हैं - प्राचार्य हरिभद्र सूरि, प्राचार्य अभयदेव सूरि, आचार्य शीलांक, आचार्य मलयगिरि आदि । अर्वाचीन टीकाकारों में प्रमुख हैं- पं० मुनि श्री घासीलालजी म०, श्री अमोलक ऋषिजी म०, प्राचार्य श्री ग्रात्मारामजी म०, आचार्य श्री तुलसी आदि । परन्तु अद्यावधि प्रकाशित संस्कृत, हिन्दी एवं गुजराती टीकात्रों में आचार्य प्रवर हस्तीमलजी म० सा०
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