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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
की टीकाएँ सुगम, सुबोध एवं आगम-मन्तव्य के अनुकूल हैं। प्रागम-टीका परम्परा में संस्कृत छाया एवं प्राकृत शब्दों के अर्थ व विवेचन के साथ हिन्दी पद्यानुवाद का समावेश आचार्य प्रवर की मौलिक दृष्टि का परिचायक है। आचार्य प्रवर कृत प्रत्येक टीका का संक्षिप्त परिचय यहाँ प्रस्तुत है। नन्दी सूत्र :
द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब आचार्य प्रवर महाराष्ट्र क्षेत्र में विचरण कर रहे थे, तब संवत् १९६८ (सन् १९४२ ई०) में आचार्य प्रवर के द्वारा संशोधित एवं अनूदित 'श्रीमन्नन्दी सूत्रम्' का सातारा से प्रकाशन हुआ । प्रकाशक थे रायबहादुर श्री मोतीलालजी मूथा।
'नन्दी सूत्र' का यह संस्करण विविध दृष्टियों से अद्वितीय है । इसमें प्राकृत मूल के साथ संस्कृत छाया एवं शब्दानुलक्षी हिन्दी अनुवाद दिया गया है। जहाँ विवेचन की आवश्यकता है वहाँ विस्तृत एवं विशद विवेचन भी किया गया है । 'नन्दी सूत्र' के अनुवाद-लेखन में आचार्य मलयगिरि और हरिभद्र की वृत्तियों को आधार बनाया गया है, साथ ही अनेक उपलब्ध संस्करणों का सूक्ष्म अनुशीलन कर विद्वान् मुनियों से शंका-समाधान भी किया गया है।
आचार्य प्रवर ने जब 'नन्दी सूत्र' का अनुवाद लिखा तब 'नन्दी सूत्र' के अनेक प्रकाशन उपलब्ध थे, परन्तु उनमें मूल पाठ के संशोधन का पर्याप्त प्रयत्न नहीं हुआ था । आचार्य प्रवर ने यह बीड़ा उठाकर 'नन्दी सूत्र' के पाठों का संशोधन किया । 'नन्दी-सूत्र' के विविध संस्करणों में अनेक स्थलों पर पाठ-भेद था, यथा-स्थविरावली के सम्बन्ध में ५० गाथाएँ थीं तथा कुछ में ४३ गाथाएँ ही थीं। इसी प्रकार 'दृष्टिवाद' के वर्णन में भी पाठ-भेद मिलता है। इन सब पर पर्यालोचन करते हुए आचार्य प्रवर ने ऊहापोह किया।
'नन्दी सूत्र' के इस संस्करण की विद्वत्तापूर्ण भूमिका का लेखन उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज ने किया । इस सूत्र के प्रकाशन का प्रबन्ध पं० दुःखमोचन झा ने किया जो प्राचार्य प्रवर के गुरु तो थे ही किन्तु प्राचार्य प्रवर की विद्वत्ता एवं तेजस्विता से अभिभूत भी थे । स्वयं प्राचार्य प्रवर ने 'नन्दी सूत्र' की व्यापक प्रस्तावना लिखकर पाठकों के ज्ञान-प्रारोहण हेतु मार्ग प्रशस्त किया । प्रस्तावना में 'नन्दी सूत्र' की शास्त्रान्तरों से तुलना भी प्रस्तुत की है।
आचार्य प्रवर ने ३१ वर्ष की लघुवय में 'नन्दी सूत्र' की ऐसी टीका प्रस्तुत कर तत्कालीन प्राचार्यों एवं विद्वानों में प्रतिष्ठा अजित कर ली थी।
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