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कर्म एवं लेश्या
संसार के प्रत्येक प्राणी का लक्ष्य बन्धनों से मुक्त होना और दुःखों से छुटकारा पाना है । किसी भी प्राणी को दुःख अभीष्ट नहीं होता, सभी प्राणी सुख चाहते हैं, ऐसा सुख जो कभी दुःख रूप में परिणत न हो। इस स्थिति को दूसरे शब्दों में मोक्ष या मुक्ति कहा गया है ।
श्री चांदमल करर्णावट
जैन दर्शन में तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता श्राचार्य उमास्वाति ने मोक्ष की परिभाषा दी है - ' कृत्स्न कर्मक्षयो मोक्षः' अर्थात् समस्त कर्मों का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है । इन कर्मों के क्षय से ही शाश्वत सुख की स्थिति प्राप्त होती है । अब यह समझना आवश्यक है कि यह कर्म क्या है जो आत्मा को बन्धनों में जकड़ देता ? उसके क्षय से किस प्रकार ग्रात्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बनती है। तथा इस कर्म का और लेश्या का क्या सम्बन्ध है ?
कर्म क्या है ?
जैन दर्शन में कर्म का अर्थ क्रिया करना नहीं है । यह एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है राग-द्वेषादि परिणामों से एकत्रित कार्मण वर्गणा के पुद्गलों का श्रात्मा के साथ बंध जाना । आत्मा कर्म करते हुए शुभ और अशुभ पुद्गलों का बंध करती है और उसके फलस्वरूप उसके शुभाशुभ फलों को भोगते हुए संसार में चक्कर लगाती रहती है अथवा जन्म-मरण करती रहती है । वह मुक्त दशा को प्राप्त नहीं होती ।
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कर्म के एक अपेक्षा से दो भेद किये गए हैं - ( १ ) द्रव्य कर्म एवं भाव कर्म । द्रव्य कर्म पुद्गल रूप हैं । भाव कर्म इन पुद्गलों को एकत्र करने में कारणभूत शुभाशुभ विचार हैं । द्रव्य कर्म, भाव कर्म के लिये एवं भाव कर्म द्रव्य कर्म के लिये कारणभूत है । दोनों ही परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । जैन दर्शन की एक उक्ति बहुत प्रसिद्ध है - 'कडाण कम्माण ण मोक्ख प्रत्थि ' अर्थात् कर्मों का फल भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता । निकाचित कर्मों की अपेक्षा यह उक्ति सही है क्योंकि निकाचित कर्म का विपाक या फल आत्मा को भोगना ही होता है । परन्तु निधत्त प्रकार के कर्मों में पुरुषार्थ के द्वारा
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