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[ कर्म सिद्धान्त
आत्मा परिवर्तन ला सकती है । और केवल प्रदेशोदय द्वारा ये कर्म क्षय हो सकते हैं ।
'जैन दर्शन : स्वरूप और विश्लेषण' में श्री देवेन्द्र मुनि का कथन कितना सार्थक है । उन्होंने लिखा है - 'संसार को घटाने-बढ़ाने का आधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष आधारित है ।' यहीं कर्म के साथ श्याओं का सम्बन्ध जुड़ जाता है। इसी प्रकार भावकर्म के रूप में लेश्याएँ कर्म-बन्ध में आधारभूत भूमिका निभाती हैं ।
लेश्या क्या है ?
• जिनके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है, जो योगों की प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है तथा मन के शुभाशुभ भावों को लेश्या कहा गया है । दूसरे शब्दों में योग और कषाय के निमित्त से होने वाले आत्मा के शुभाशुभ परिणाम को लेश्या कहा गया है, जिससे आत्मा कर्मों से लिप्त हो । अपर शब्दों में लेश्या एक ऐसी शक्ति है जो आने वाले कर्मों को आत्मा के साथ चिपका देती है । यह शक्ति कषाय और योग से उत्पन्न होती है । इन परिभाषात्रों का सार यही है कि लेश्या हमारे शुभाशुभ परिणाम या भाव हैं जिनमें कषाय और योग के कारण ही स्निग्धता उत्पन्न होती है जो हमारे चारों ओर फैले हुए कर्म पुद्गलों को आत्मा के चिपका देती है। जैन दर्शन में इसीलिये कहा भी गया है'परिणामे बन्ध' अर्थात् शुभाशुभ कर्मों का बन्ध श्रात्मा के परिणामों पर निर्भर है । लेश्या आत्मा के ऐसे शुभ-अशुभ परिणाम है जो कर्मबन्ध का कारण बनते हैं । 'पन्नवणासूत्र' के १७वें पद में लेश्याओं का वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कर्मबन्ध में उनको सहकारी कारण बतलाया है । और इस दृष्टि से हमारी आत्मा के शुभाशुभ विचारों में तीव्रता और मन्दता अथवा प्रासक्ति और अनासक्ति होने पर कर्मबन्ध भी उसी प्रकार का भारी या हल्का होता है ।
लेश्या और कर्म का सम्बन्ध :
कर्म और लेश्या की परिभाषा जानने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि लेश्या और कर्म में कारण और कार्य का सम्बन्ध है । लेश्याएँ या आत्मा के विभिन्न परिणाम स्निग्ध और रुक्ष दशा में तद्तद् रूप में कर्मबन्ध का कारण बनते हैं । यदि कोई कार्य करते हुए हमारी उसमें प्रासक्ति हुयी तो कर्मबन्ध जटिल होगा और अनासक्त भाव से कार्य करते हुए आत्मा के साथ कर्मों का बन्ध मन्द मन्दतर और मन्दतम होगा ।
कर्मबन्ध के भिन्न-भिन्न विवक्षाओं से अलग - अलग कारण बतलाए हैं । परन्तु मुख्यत: राग-द्वेष की वृत्तियाँ ही कर्म का बीज मानी गयी हैं । कहा भी
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