________________ कर्म का अस्तित्व ] महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि में थी, उतनी उनकी सन्तानों में नहीं थी। जो बौद्धिक शक्ति हेमचन्द्राचार्य में थी, वह उनके माता-पिता में नहीं थी। कर्म सिद्धान्त को माने बिना इन सबका यथोचित्त समाधान नहीं हो सकता। क्योंकि इस जन्म में दिखाई देने वाली विलक्षणताएं न तो वर्तमान जन्म के कार्यों का फल है, और न ही माता-पिता की कृति का, न सिर्फ परिस्थिति का है। इसके लिए पूर्वजन्म के शुभाशुभ कर्मों को मानना पड़ता है, इस प्रकार एक पूर्वजन्म सिद्ध होते ही अनेक पूर्वजन्मों की शृखला सिद्ध हो जाती है, क्योंकि असाधारण ज्ञानशक्ति किसी एक ही जन्म के अभ्यास का फल नहीं हो सकती। गीता में भी इसका समर्थन किया गया है 'अनेक जन्म संसिद्धिस्ततो यान्ति परां गतिम् / ' अनेक जन्मों में जाकर अन्तःकरण शुद्धिरूप सिद्धि प्राप्त होती है, उसके पश्चात् साधक परा (मोक्ष) गति को प्राप्त कर लेता है / बालक जन्म लेते ही माता का स्तनपान करता है, भूख-प्यास लगने पर रोता है, डरता है, अपनी मां को पहचानने लगता है, ये सब प्रवृत्तियां बिना ही सिखाए बालक को स्वतः सूझ जाती हैं, इसके पीछे पूर्वजन्मकृत कर्म ही कारण हैं। अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ / -आचारांग 1 / 3 / 1 जो कर्म में से अकर्म की स्थिति में पहुँच गया है, वह तत्त्वदर्शी लोक व्यवहार को सीमा से परे हो गया है। सम्वे सयकम्मकप्पिया -सूत्रकृतांग 1 / 2 / 6 / 18 सभी प्राणी अपने कृत-कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं / जहा कडं कम्म, तहासि भारे / -सूत्रकृतांग 1 / 5 / 1 / 26 जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका भोग / कत्तारमेव प्रणुजाइ कम्म। -उत्तराध्ययनं 13123 कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org