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________________ | आचारांग सूत्र में मूल्यात्मक चेतना ....97 हैं (४७) ४. वह पूर्ण आगरूकता से चलने वाला होता है, अत: वह वीर हिंसा से संलग्न नहीं किया जाना है (४९)। वह सदैव ही आध्यात्मिकता में जागता है (५१) । ५. वह अनुपम प्रसन्नता में रहता है (४८)। ६. वह कर्मों से रहित होता है। उसके लिए सामान्य लोक प्रचलित आचरण आवश्यक नहीं होता है, (५५) । किन्तु उसका आचरण व्यक्ति व समाज के लिए मार्गदर्शक होता है। वह मूल्यों से अलगाव को तथा पशु प्रवृत्तियों के प्रति लगाव को समाज के जीवन में सहन नहीं करता है (४७)। आन्धारांग का शिक्षण है कि जिस काम को जाग्रत व्यक्ति करता है, व्यक्ति व समाज उसको करे (५०) ७. वह इन्द्रियों के विषयों को द्रष्टाभाव से जाना हुआ होता है, इसलिए वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् कहा जा सकता है (५२)। ८. जो लोक में परम तत्त्व को देखने वाला है, वह वहाँ विवेक से जीने वाला होता है, वह तनाव से मुक्त, समतावान् , कल्याण करने वाला, सदा जितेन्द्रिय कार्यों के लिए उचित समय को चाहने वाला होता है तथा वह अनासक्तिपूर्वक लोक में गमन करता है (५८)। ९. उस महामानव के आत्मानुभव का वर्णन करने में सब शब्द लौट आते हैं, उसके विषय में कोई तर्क उपयोगी नहीं होता है, बुद्धि उसके विषय में कुछ भी पकड़ने वाली नहीं होती है (९७) आत्मानुभव की वह अवस्था आभामयी होती है। वह केवल ज्ञाता-द्रष्टा अवस्था होती है (९७)। महावीर का साधनामय जीवन आचारांग ने महावीर के.साधनामय जीवन पर प्रकाश डाला है। यह जोवन किसी भी साधक के लिए प्रेरणास्रोत बन सकता है। महावीर सांसारिक परतन्त्रता को त्यागकर आत्मस्वातन्त्र्य के मार्ग पर चल पड़े (१०३) उनकी साधना में ध्यान प्रमुख था। वे तीन घंटे तक बिना पलक झपकाए आंखों को भींत पर लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे (१०४)। यदि महावीर गृहस्थों से युक्त स्थान में ठहरते थे तो भी वे उनसे मेलजोल न बढ़ाकर ध्यान में ही लीन रहते थे। बाधा उपस्थित होने पर वे वहां से चले जाते थे। वे ध्यान की तो कभी भी उपेक्षा नहीं करते थे (१०५) महावीर अपने समय को कथा, नाच, गान में, लाठी युद्ध तथा मूठी युद्ध को देखने में नहीं बिताते थे (१०६)। काम कथा तथा कामातुर इशारों में वे हर्ष शोक रहित होते थे (१०७)। वे प्राणियों की हिंसा से बचकर विहार करते थे (१०८)। वे खाने-पीने की मात्रा को समझने वाले थे और रसों में कभी लालायित नहीं होते थे (१०९)। महावीर कभी शरीर को नहीं खुजलाते थे और आंखों में कुछ गिरने पर आंखों को पोंछते भी नहीं थे (११०)। वे कभी शुन्य घरों में, कभी लुहार, कभी कुम्हार आदि के कर्म--स्थानों में, कभी बगीचे में, मसाग में और कभी पेड़ के नीचे ठहरते थे और संयम में सावधानी बरतते हुए वे ध्यान करते थे (११२,११३,११४)। महावीर सोने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229806
Book TitleAcharang Sutra me Mulyatmak Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size191 KB
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