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________________ 196 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क तत्परता सहित होने हैं, कुछ लोग उसको आज्ञा में भी आलसी होने हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए (९६) यहां यह पूछा जा सकता है कि क्या मनुष्य के द्वारा आज्ञा पालन किए जाने को महत्त्व देना उसकी स्वतन्त्रता का हनन नहीं है?उत्तर में कहा जा सकता है कि स्वतन्त्रता का हनन तब होता है जब बुद्धि या तर्क से सुलझाई जाने वाली समस्याओं में भी आज्ञापालन को महत्त्व दिया जाए। किन्तु, जहां बुद्धि की पहुंच न हो ऐसे आध्यात्मिक रहस्यों के क्षेत्र में आत्मानुभवी (समतादर्शी) की आज्ञा का पालन ही साधक के लिए आत्म विकास का माध्यम बन सकता है। संसार को जानने के लिए संशय अनिवार्य है (८३), पर समाधि के लिए श्रद्धा अनिवार्य है (९२) इससे भी आगे चलें तो समाधि में पहुंचने के लिए समतादर्शी की आज्ञा में चलना आवश्यक है। संशय से विज्ञान जन्मता है, पर आत्मानुभवी की आज्ञा में चलने से ही समाधि- अवस्था तक पहुंचा जा सकता है। अत: आचारांग ने अर्हत् की आज्ञा पालन को कर्त्तव्य कहकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने के लिए मार्ग प्रशस्त किया है। ९. मनुष्य लोक की प्रशंसा प्राप्त करना चाहता है, पर लोक असाधारण कार्यों की बड़ी मुश्किल से प्रशंसा करता है। उसकी पहुंच तो सामान्य कार्यों तक ही होती है। मूल्यों का साधक व्यक्ति असाधारण व्यक्ति होता है, अत: उसको अपने क्रान्तिकारी कार्यों के लिए प्रशंसा मिलना कठिन होता है। प्रशंसा का इच्छुक प्रशंसा न मिलने पर कार्यों को निश्चय ही छोड़ देगा। आचारांग ने मनाय की इस वृत्ति को समझकर कहा है कि मूल्यों का साधक लोक के द्वारा प्रशंसित होने के लिए इच्छा ही न करे (७३)। वह तो व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मूल्यों की साधना से सदैव जुड़ा रहे। साधना की पूर्णता साधना को पूर्णता होने पर हमें ऐसे महामानव के दर्शन होते हैं जो व्यक्ति के विकास और सामाजिक प्रगति के लिये प्रेरणा स्तम्भ होता है। आचारांग में ऐसे महामानव की विशेषताओं को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया गया है। उसे दृष्टा, अप्रमादी, जाग्रत, अनासक्त, वीर, कुशल आदि शब्दों से इंगित किया गया है। १. द्रष्टा के लिए कोई उपदेश शेष नहीं है (३८)। उसका कोई नाम नहीं है (७१) । २. उसकी आंखें विस्तृत होती है अर्थात् वह सम्पूर्ण लोक को देखने वाला होता है (४४)। ३. वह बंधन और मुक्ति के विकल्पों से परे होता है (५०) वह शुभ-अशुभ, आदि दोनों अन्तों से नहीं कहा जा सकता है, इसलिए वह द्वन्द्वातीत होता है (५६, ६४) और उसका अनुभव किसी के द्वारा न छेदा जा सकता है, न भेदा जा सकता है, न जलाया जा सकता है तथा न नष्ट किया जा सकता है (६४)। वह किसी भी विपरीत परिस्थिति में खिन्न नहीं होता है और वह किसी भी अनुकूल परिस्थिति में खुश नहीं होता है। वास्तव में वह तो समता भाव में स्थित रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229806
Book TitleAcharang Sutra me Mulyatmak Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherZ_Jinavani_003218.pdf
Publication Year2002
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size191 KB
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