________________ ||15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 1197 पृच्छा .. 'चउव्वीसत्याएणं भंते! जीवे किं जणयइ?' हे प्रभु! चतुर्विंशतिस्तव से आत्मा को किस फल की प्राप्ति होती है। भगवान् ने फरमाया- 'घउवी सत्यारणं दंसणविसोहिं जणयइ।' हे गौतम! चतुर्विंशतिस्तव से जीव के दर्शन (श्रद्धा) में बाधा उत्पन्न करने वाले कर्म दूर हो जाते हैं और सम्यक्त्व में रहे हुए चल-मल अगाढ़ दोष दूर होकर शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। प्रथम आवश्यक सामायिक में समभाव में स्थिर होने पर आत्मा, वीतराग भगवंतों के गुणों को जान सकती है व उनका गुणानुवाद कर सकती है। अर्थात् जब आत्मा समभाव में स्थिर हो जाती है तब ही भावपूर्वक तीर्थंकरों का गुणानुवाद किया जा सकता है, इस कारण से सामायिक के बाद दूसरे आवश्यक के रूप में चतुर्विंशतिस्तव रखा गया है। आवश्यक नियुक्ति में षडावश्यक के निरूपण में दूसरे अध्ययन चतुर्विंशतिस्तव में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छः निक्षेपों की दृष्टि से उत्कीर्तन सूत्र पर प्रकाश डाला गया है। चूर्णि साहित्य में स्तव, लोकउद्योत, धर्मतीर्थंकर आदि पदों पर निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया गया है। ___ उत्कीर्तन सूत्र में परमोच्च शिखर पर पहुँचे हुए तीर्थंकरों के गुणों का अवलम्बन लेकर मोक्षमार्ग की साधना का मार्ग प्रशस्त होता है। इस उत्कीर्तन सूत्र में चौबीसों तीर्थंकरों की स्तुति के अलावा 20 विहरमान एवं सिद्ध आत्माओं को भी वन्दन करते हुए उनका आलम्बन लेकर स्वयं प्रेरणा प्राप्त कर सिद्ध बनने की कामना व्यक्त की गई है। - -मंत्री, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, 22, गीजगढ़ विहार, हवा सड़क, जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org