________________ |15,17 नवम्बर 2006|| | 132] 132 | जिनवाणी | अतिशय युक्त हैं, सुर-असुर, नरों से सेवित हैं। सूरान्सुरनराधीशं मयूरनववादिदम् / कर्मन्मूलने हस्तिमल्लं मल्लिमभिष्ट्रमः / / मेघ समान हैं। वीरप्रभु हेतु कई पद हैं- वीरः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितो वीरं बुधाः संश्रिताः / वीरेणाभिहतः स्वकर्मनिचयो वीराय नित्यं नमः / / वीरप्रभु विद्वानों, पंडितों से पूजित हैं सारे कर्म घोर तप से नष्ट किये हैं। उनमें केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी, धैर्य, कांति, कीर्ति स्थित है। तीर्थों की उपासना में अष्टापद, गजपद, सम्मेतशिखर, गिरनार, शत्रुजय, वैभारगिरि, आबू, चित्रकूट की उपासना की है। अजित शांतिस्तवन __ सकलार्हत् की तरह अजितशांति स्तवन भी पाक्षिक, चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में बोला जाता है। इसमें चालीस पद्य हैं जो पूर्वाचार्य श्री नंदिषेण कृत हैं। शत्रुजय एवं तीर्थ पर विराजित अजितनाथ एवं शांतिनाथ के चैत्यों के बीच में रहकर दोनों की एक साथ स्तुति कर रचना की है। कोई आचार्य, श्री नंदिषेण को भगवान् महावीर के शिष्य तथा कोई नेमिनाथ प्रभु के शिष्य मानते हैं। शत्रुजय महाकल्प में नंदिषेण का उल्लेख है। प्राकृत भाषा में शांतरस, सौन्दर्य एवं शृंगार रस एवं श्रेष्ठ कवित्व का अध्यात्म जगत में बेजोड़ नमूना है। रुचि अनुसार पाठक विस्तार से मूल अवश्य पढ़ें यहाँ चंद पद्य उपर्युक्त भाव की पुष्टि स्वरूप दिये जाते हैं अजिअं जिअ-सव्वभयं, संतिं च पसंत सव्वगय पायं / जय गुरु संति गुणकरे, दो वि जिणवरे पणिवयामि / / अजितनाथ एवं शांतिनाथ दोनों जिनवर सब पापों को हर कर शांति देने वाले हैं। सातों भयों को दूर करते हैं। सुहप्पवत्तणं तव पुरिसुत्तम नाम कित्तणं। तहय धिइमइप्पवत्तणं तव य जिणुत्तम संति कित्तणं / / अजितनाथ सुख के दाता, धैर्य एवं बुद्धि की वृद्धि करने वाले हैं। समस्त अजितशांति में स्थान-स्थान पर शान्ति की कामना की है। तं संति संतिकरं, संतिण्णं सव्वभया! संति थुणामि जिणं संति विहेउ मे / / इस प्रकार वंदित्तु सूत्र आत्मशुद्धि हेतु व्रतों की आलोचना से सम्बद्ध है तथा सकलार्हत् स्तोत्र एवं अजितशान्ति स्तवन प्रभु के वंदन एवं स्तुति से सम्बद्ध हैं तथा तीनों ही श्रावकधर्म की पुष्टि करते हैं। - सेवानिवृत्त, आई.ए. एस., जी 134, शास्त्री नगर, जोधपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org