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||15,17 नवम्बर 2006||
| जिनवाणी करना, शस्त्रादि व्यापार, चक्की घाणी यांत्रिक कर्म जिनमें जीवों की हानि हो, छेदन, अग्नि कर्म आदि तथा भूमि प्रमार्जन में प्रमाद, पौषधव्रत का उल्लंघन, इस लोक में परलोक में सुख-वैभव की आकांक्षा आदि विविध दोषों के लिए वंदित्तु सूत्र में आलोचना की गई है। कुछ ऐसे दोहे हैं जिनमें स्व-आलोचना का महत्त्व दर्शाया है, जैसे- "कयपावोवि मणुस्सो आलोइअ निदिअ गुरुसगासे।” जिस प्रकार भार उतारने से व्यक्ति हल्का होता है उसी प्रकार गुरुदेव के पास आलोयणा लेने से, आत्मसाक्षी से, पाप की निन्दा करने से मनुष्य के पाप हल्के होते हैं। 'खिप्पं उवसामेई वाहिव्य सुन्सिक्खिाओ विज्जो।' सुशिक्षित वैद्य जैसे रोग को ठीक कर देता है वैसे ही प्रतिक्रमण से दोष दूर हो जाते हैं।
प्रतिक्रमण में निषिद्ध कार्य करने एवं योग्य कार्य न करने के दोषों के लिए प्रायश्चित्त एवं आत्मनिन्दा की जाती है। फिर सब जीवों से क्षमायाचना की जाती है - "खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु वे मज्झं न केणई।" वंदित्तुसूत्र की ५०वीं गाथा में "एवमहं आलोइअ निदिअ मरहिअ दुगच्छं सम्म' 'कहा है अर्थात् मैं अच्छी तरह कृत पापों की आलोचना, निन्दा एवं गुरु के समक्ष गर्दा करता हूँ। सकलार्हत् सूत्र- वंदित्तु के अनन्तर सकलार्हत् चैत्य वन्दन का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है। चैत्यवंदन में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है एवं चैत्यों, तीर्थों, प्रतिमाओं को भी कुछ श्लोक समर्पित हैं। संस्कृत में रचित ये श्लोक प्रभावी, गूढ़ और अध्यात्म शास्त्र के बेजोड़ नमूने हैं।
__ स्थानाभाव से कुछ ही पद्य उल्लेखित करना उपयुक्त होगा। अतः जिज्ञासु मूल पाठ सहृदयता से पढ़ें एवं समझेंप्रथम तीर्थंकर दादा ऋषभदेव के लिए अर्पित है
आदिमं पृथ्वीनाथमादिमं निष्परिगृहम् ।
आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ।। अवसर्पिणी काल में ऋषभ देव प्रथम नृपति, प्रथम अपरिग्रही एवं प्रथम तीर्थंकर हुए हैं, जिन्हें वन्दन करते हैं।
अनेकान्तमताम्बोधि समुल्लासनचन्द्रमाः ।
दद्यादमन्दमानंदं भगवान् अभिनन्दनः ।। अनेकान्त रूपी समुद्र को उल्लासित करने में अभिनन्दन स्वामी चन्द्रमा के समान हैं।
सत्त्वानां परमानन्दकंदो दनवाम्बूदः।
स्याद्वादमृतनिःस्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ।। स्याद्वाद रूपी अमृत की वर्षा करने वाले, परमानन्द रूपी अंकुर को स्थापन करने में नव मेघ तुल्य प्रभु शीतलनाथ को वंदन करता हूँ।
इसी प्रकार कहा है कि भवरूपी रोग को मिटाने में कुशल वैद्य समान श्रेयांस नाथ आपका श्रेय करे। अनंतनाथ प्रभु के हृदय में स्वयम्भूरमण समुद्र की अनंत करुणा है। धर्मनाथ प्रभु कल्पवृक्ष के समान हैं। शांतिनाथ प्रभु अमृत के समान निर्मल देशना से दिशाओं के मुख उज्ज्वल करते हैं। श्री कुंथुनाथ प्रभु चौबीस
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