________________ 104 / जिनवाणी 115,17 नवम्बर 2006|| त्रिविध मन-वचन-काय, त्रिदण्ड या त्रिशल्य (माया-निदान-मिथ्यादर्शन) का प्रतिक्रमण, चार प्रकार के कषाय, विकथा, संज्ञा आदि तथा चतुर्विध ध्यान का प्रतिक्रमण (प्रथम दो का त्याग, अपर दो स्वीकृत) प्रतिपादित है। टीकाकार हरिभद्रसूरि ने प्रतिक्रमण के लिये शुभ ध्यान के महत्त्व को प्रतिपादित किया है। प्रतिक्रमण का प्रयोजन एवं परिणाम समस्त जीवयोनि से क्षमा तथा प्राणिमात्र से मैत्री है कि मैं प्रत्येक जीव/सत्त्वमात्र से क्षमायाचना करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, किसी को अशांति नहीं हो। मेरी मैत्री सभी जीवों से है, मेरा किसी से वैर नहीं है। इस प्रकार मैं मन-वचन-काया से प्रतिक्रमण द्वारा अपने दुष्कृत्यों की आलोचना, निन्दा, गर्दा करता हूँ और चौबीस तीर्थंकरों को वंदना करता हूँ। खामेमि सवे जीवा, सत्ये जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वे मज्झं न केणइ / / एवमहं आलोइय निन्दिय गरहिय दुगंछियं सम्मं / तिविहेण पडिक्कं तो वंदामि जिणं चउवीसं / / -निदेशक, वर्द्धमान महावीर खुला विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय केन्द्र, जयपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org