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मार्च २०१०
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के अधिकारी चारों जातियों के गृहस्थ या गृहिणी हो सकते थे ।१४ व्रतों के विस्तृत वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि वहाँ जाति, लिंग आदि के निर्बन्ध बहुत कम है। हिन्दुधर्म के अन्तर्गत ही जातिलिंग-निरपेक्ष धर्माचरण की आवश्यकता उत्पन्न हुई । जैन और बौद्धों ने जातिव्यवस्था पर भी कठोर आघात किये ।१५ परिणामवश व्रतों के विवेचन में कहीं भी 'अमुक जाति द्वारा किये गये व्रत', इस तरह के उल्लेख नहीं पाये जाते । व्रत कराने के लिए ब्राह्मण पुरोहित की आवश्यकता के संकेत बहुत ही कम मिलते हैं । जैनधर्म में श्रावक और श्राविकाओं के लिए बारह व्रतों के रूप में एक सुघट श्रावकाचार का प्रावधान था ।१६ बौद्धों ने भी पंचशील के रूप में उपासकाचार बताया था ।१७ हिन्दु धर्मशास्त्रियोंने परिवर्तित व्रतों के रूप में सभी जातियों के गृहस्थ तथा विशेषतः गृहिणियों के लिए आचार बनाया ।१८ आम समाज में प्रचलित धार्मिक तथा देवतालक्षी विधियों का वर्णन यद्यपि ग्रान्थिक कर्मकाण्डात्मक स्वरूप में स्मृतियों में अंकित नहीं किया गया है, तथापि 'लोकवेद' संज्ञा से सम्बोधित अथर्ववेद में आम समाज में प्रचलित रूढी, परम्परा, कुलाचार, प्रघात, अन्धविश्वास, मन्नत आदि के रूप में इसका दिग्दर्शन होता है। पुराणों में अंकित व्रतों पर इस लोकप्रचलित रूढी, विधि आदि का भी जरूर प्रभाव रहा होगा।
आगम तथा आगमोत्तरकालीन व्रत (१) जैन परिप्रेक्ष्य में 'व्रत' का अर्थ :
'व' क्रियापद के जो विविध अर्थ संस्कृतकोश में दिये हैं, उसमें से 'मर्यादा करना', 'नियन्त्रण करना' तथा 'रोकना' यह अर्थ आगमकाल की व्रतसंकल्पना से सर्वाधिक मिलता जुलता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जैन
और हिन्दु दोनों का व्रतों का व्युत्पत्त्यर्थ ही अलग अलग है । हिन्दुव्रत में 'संकल्प', 'इच्छा', 'प्रतिज्ञा' आदि को प्राधान्य है९ तो जैनव्रतों में 'विरति'