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अनुसन्धान ५० (२)
होते गये । पूजा, व्रत-विधान, उपवास, दान तथा महिना-वार-तिथि-पर्व आदि मुद्दों का समावेश होते हुए व्रतों की संख्या बढती गयी और स्वरूप में भी परिवर्तन आये । इसकी कारणमीमांसा निम्नलिखित प्रकार से दी जा सकती
(४) हिन्दु परम्परा में 'व्रतपरिवर्तन' तथा 'व्रतवृद्धि' की कारणमीमांसा :
वेद और ब्राह्मण काल में प्रचलित यज्ञ धीरे-धीरे आडम्बरयुक्त, पुरोहितप्रधान, खर्चीले और व्यामिश्र बनते चले गये । सर्वसामान्य व्यक्ति के लिए यज्ञविधि रचाना नामुमकीनसा होता चला गया । आरम्भ में प्रायः सभी व्रत यज्ञविधि से सम्बन्धित ही थे । यद्यपि यज्ञ का प्रचलन कम होने लगा तथापि उससे सम्बन्धित व्रत परिवर्तित स्वरूप में रूढ होते चले । जैन और बौद्धों ने यज्ञ संस्था का जमकर विरोध किया । खासकर पशुहिंसात्मक यज्ञों की स्पष्ट और कठोर शब्दों में निन्दा की ।१० परिणामस्वरूप यज्ञों की जगह धीरे-धीरे प्रासंगिक व्रतों ने ली होगी। केवल जैन और बौद्धों ने ही नहीं तो वैदिक या ब्राह्मण परम्परा के कुछ विचारवन्तों ने भी यज्ञ में निहित हिंसा को गर्हणीय मानी थी और अहिंसा तथा भक्तिप्रधान धर्माचरण के प्रति आस्था रखी थी। महाभारत तथा कुछ अन्य ग्रन्थों के अनुसार ब्राह्मण परम्परा में रहकर नारद ने पशुहिंसा का जो विरोध किया और नामसंकीर्तन का महिमा बताया, इससे स्पष्ट होता है कि हिन्दु परम्परा के ही अन्तर्गत होनेवाले विरोधात्मक विचारप्रवाह से विविध व्रत-विधान, पूजा आदि का प्रचलन हुआ होगा ।११ नारद की अहिंसाप्रधान दृष्टि का गौरव इसी वजह से जैन परम्परा ने उसको ऋषिभाषित में स्थान देकर किया होगा ।१२ यज्ञप्रधान धर्म में स्त्रियाँ और शूद्रों को किसी भी प्रकार के धार्मिक विधि के अधिकार नहीं थे ।१३ समाज का इतना बड़ा हिस्सा धर्म से वंचित नहीं रह सकता था । व्रतों की विशेषता यही है कि व्रत