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अनुसन्धान ४९
नारद को व्यन्तरदेवों में रखा होगा। नारद के प्रति संभ्रमावस्था का हल तत्त्वार्थने इस प्रकार निकाला। ज्ञाताधर्मकथा में 'कच्छुल्लनारद' :
अर्धमागधी का छठा अङ्गग्रन्थ ज्ञाताधर्मकथा का काल प्रायः इसवी की पाँचवी शताब्दी का मान्य हो चुका है। इसके सोलहवें द्रौपदी-अध्ययन में नारद का विस्तृत चित्रण पाया जाता है। इसमें नारद का चित्रण बिलकुल अलग तरह से किया है। पूरे अध्ययन में इसे 'कच्छुल्लनारद' संज्ञा से ही निर्देशित किया है। उसे 'ऋषि', 'देवर्षि', 'अनगार', 'परिव्राजक आदि विशेषणों से सम्बोधित नहीं किया है।
जैन परम्परा में अन्यत्र इतनी बड़ी मात्रा में नारद का व्यक्तिगत शारीरिक वर्णन नहीं पाया जाता जितना कि ज्ञाताधर्मकथा में शब्दाङ्कित है। ये 'कच्छुल्लनारद' याने कलहप्रिय अथवा अकच्छपरिधानवाले नारद, दर्शन में अतिभद्र, बाहर से विनम्र अन्तरङ्ग में कलुषित, मध्यस्थ, सौम्य, प्रियदर्शन, सुरूप, निर्मल वस्त्र परिधान करनेवाले, मृगचर्म का उत्तरीय पहननेवाले, दण्ड-कमण्डलुसहित, जटारूपी मुगुट पहननेवाले, यज्ञोपवीत तथा रुद्राक्षमाला धारण करनेवाले, मुंज की मेखला धारण करनेवाले, गीतप्रिय, आकाशगमन करनेवाले तथा पृथ्वीपर भी उतरनेवाले, संक्रामणिस्तम्भिनी आदि विद्याधरों की विद्याओं से सम्पन्न, बलराम-कृष्णसहित सभी यादवों के वल्लभ, वाग्युद्ध में पटु, कलह के अभिलाषी इस प्रकार के
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उक्त विशेषोंसहित नारद पण्डुराजा के भवन में पधारते हैं । एक द्रौपदी छोडकर सभी नारद का आदर-वन्दन आदि करते हैं ! द्रौपदी उन्हें 'असंयत' मानकर सम्मान नहीं देती। नारद मन ही मन द्रौपदी के पाँच पति होने का गर्व हरण करने की बात सोचते हैं । धातकीखण्ड में स्थित अवरकंका नगरी के पद्मनाभ राजा को द्रौपदी का सौन्दर्यवर्णन करके उकसाते हैं । परिणामवश पद्मनाभ राजा देवताद्वारा द्रौपदी का अपहरण करता है। बाद में कृष्ण वासुदेव को इसकी खबर भी देता है । कथा में अकस्मात् अवतीर्ण होकर नारद, उसी तरह से कथानक से निवृत्त होते हैं ।
• नारद के प्रति 'कच्छुल्ल' शब्द का उपयोग भी सिर्फ ज्ञाता में ही
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