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सप्टेम्बर २००९
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देवर्षि 'नौ' हैं । यद्यपि इनमें 'देवर्षि नारद' स्पष्टत: से नहीं कहा है तथापि देवर्षियों के गुणविशेष देखकर यह मालूम होता है कि यह देवर्षि नारद के व्यक्तित्व से बहुत ही निकटता दिखायी देती है। उनका परित्तसंसारी होना, विषयरति से परे होना, देवों द्वारा पूजित होना तथा चौदह पूर्वो के ज्ञाता और तीर्थंकर होना ये सब विशेष देवर्षि नारद के व्यक्तित्व से मेल खाते हैं । लोकान्तिक देवों का निवासस्थान 'ब्रह्मलोक' नामक पाँचवा स्वर्ग है। उनके इन्द्र को 'ब्रह्मा' कहते हैं ।२३
वैदिक मान्यता के अनुसार भी देवलोक में अर्थात् स्वर्गलोक में वास्तव्य करनेवाले ऋषियों को 'देवर्षि' कहते हैं । देवर्षि 'दस' हैं। और उनमें से पहली गिनती नारद की है ।२४ रामायण, भगवद्गीता और भागवतपुराण में नारद को 'देवर्षि' कहा है। इस परम्परा के अनुसार वे देव द्वारा पूजित है तथा त्रैलोक्यज्ञाता तथा विषयरति से परे हैं। भागवतपुराण में नारद को ब्रह्मा का मानसपुत्र कहा है।५, यह बात भी विशेष लक्षणीय है।
तत्त्वार्थसूत्र में लोकान्तिक देवों की गिनती करते समय 'नारद' नामक व्यक्तिगत उल्लेख नहीं किया है । तथापि 'देवर्षि' नामक उपर्युक्त विशेषताओं से सम्पन्न 'पद' की निर्मिती करके उसे 'देवर्षि' नामाभिधान दिया होगा । देवर्षि नाम का उपयोग करते हुए उनके मन में कहींना कहीं नारद के व्यक्तिमत्व की छाया जरूर छायी होगी।
तत्त्वार्थसूत्र के दैवतशास्त्र में दो बार देवर्षि नारद का जिक्र क्यों किया? इस प्रश्न का समाधान हम ढूंढ सकते हैं । औपपातिक उपाङ्गसूत्र में नारदीय परिव्राजकों को व्यन्तरगति प्राप्त होने का उल्लेख है ।२६ इसी वजह से तत्त्वार्थ में व्यन्तरदेवों में उनकी गणना की होगी । तथापि 'देवनारदेण अरहता इसिणा बुइयं' इस ऋषिभाषितगत वाक्य से सूचित उसका देवर्षिरूप आदरणीय स्थान उन्होंने लोकान्तिक देवों के 'देवर्षि' नाम से सूचित किया है ! साक्षात् 'नारद' नाम का उल्लेख नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्रकार के सामने हिन्दु और जैन परम्परा के जितने भी नारदविषयक सन्दर्भ थे, उनपर सोचविचारकर उन्होंने आदरणीय व्यक्तित्व के रूप में 'देवर्षि' नामक लोकान्तिक देवों को स्थान दिया होगा । तथा विचरणशील
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