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सप्टेम्बर २००९
उसका मूल हमें महाभारत में मिलता है । महाभारत में कहा है कि विविध विषयों में सतत जिज्ञासा रखनेवाले नारद ने पंचचूडा से स्त्रीस्वभाव समझ लिया था । सामान्यतः स्त्रियों में उपस्थित मत्सर और कलहप्रियता के अंश नारद ने उनके सम्पर्क में आकर अधिक परिष्कृत किये हुए दिखायी देते हैं ।
भागवतपुराण, विष्णुपुराण तथा मार्कण्डेयपुराण आदि पुराणों से नारद की कलहप्रियता तथा स्त्रीसम्पर्क ये दोनों मुद्दे उठाकर जैन ग्रन्थकारों ने विविध ग्रन्थों में प्रस्तुत किये हुए दिखायी देते हैं। पुराणों की तुलना में जैन ग्रन्थों में आदरणीयता तो कम दिखायी देती है ।
उपरिलिखित सब चर्चा का फलित यह है कि यद्यपि ज्ञाताकार ने 'कच्छुल्लनारद' कहकर नारद के प्रति अनादरणीयता प्रगट की है तथापि ऋषिभाषित में अंकित नारद के प्रति आदरणीयता का भाव उसके मन से पूरी तरह ओझल नहीं हुआ है । इसी वजह से उसने पण्डु, कृष्ण, कुन्ती आदिद्वारा नारद का सम्मानित भाव भी दिखाया है और उसके नीच गतिगामी होने का कोई संकेत नहीं दिया है ।
औपपातिक में 'नारदीय परिव्राजक' :
औपपातिकसूत्र में विविध प्रकार के समकालीन तापसों के आचार का संक्षिप्त विवेचन किया है । उसमें आठ ब्राह्मण जाति के परिव्राजकों में नारद की गणना की है। आश्चर्य की बात यह है कि नारद को एक व्यक्ति मानकर उसके विशेषण, उसकी कथाएँ यहाँ बिलकुल नहीं दी है । औपपातिक में ही आगे जाकर नारदीय परिव्राजकों के आचार का वर्णन टीकाकार ने दिया है । कहा है कि, "ये नारदीय परिव्राजक दानधर्म की, शौचधर्म की, तीर्थाभिषेक आदि की सब बातें जनता को अच्छी तरह समझाते हुए जनता में विचरते रहते हैं । ४१
औपपातिक के टीकाकार के काल तक (बारहवी शताब्दी) देवर्षि नारद से शुरू हुई परम्परा का एक संकीर्तनात्मक भक्तिसम्प्रदाय जरूर बना होगा । क्योंकि टीकाकार कहते हैं कि, 'ये सब कृष्ण की भक्ति करनेवाले हैं ।' लगता है कि उपदेश और गुणसंकीर्तन उनकी विशेषताएँ होंगी ।
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