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जो वि तुह मीसनामो तणूरुहो सो वि मिच्छसम्माण । अणुयत्तिं कुव्वंतो पडिहाइ न मज्झ सुद्धप्पा ॥४१|| मज्झत्थयाए जइ वि हु न दंसए एस किंचि वि वियारं। : तह वि निय-पक्ख-पुद्धिं न कुणइ जो तंमि का आसा ।।४२!! किं पुण एसो उदयस्स थेवकालो त्ति तारिसं न भयं । तह वि हु इमस्स तुमए स-पुर-पवेसो न दायव्यो ।।४३।। चारित्तमोहनामो सहोयरो जो उ वल्लहो तुज्झ । का वन्निज्जइ तस्स वि समत्थिमा पत्थुयत्थंमि ।।४४।। जं से अविरइनामा पिया सुया तेसिं तिन्नि चउवयणा । जलण-गिरिथंभ-सागर नामाणो बहुलिया धूया ॥४५|| एयाणि सहावेण वि अम्हं कुलवुड्डिकारयाणि सया । निय पिउणा तुमए वि हु पुरक्खडाइं विसेसेण ॥४६॥ जं जलण-तविय-चित्तो न गणइ जणयं न मन्त्रए जणणि । लंघइ सहोयरं गुरुयणं च अवगणइ निरवक्खो ॥४७|| विरमेइ न पावाओ धम्ममि मणं मणं पि न करेइ । अहव परायत्ताणं एत्तियमेतमि किं चोज्जं ॥४८॥ गुरुथंभेणं थड्डीकओ अप्पाणमेव मन्नंतो। तिणमिव गणेइ जयमवि कुणइ अवण्णं गुरूणं पि ॥४९।। भणइ य अहमेव गुरू भुवणस्स विन उण मह गुरू को वि। जाइकुलाईण वि गुण-रयणाण महं चिय निहाणं ॥५०॥ अच्चंतायासकरं दुरंत दुग्गय-निवाय-संजणयं । सागरओ सागरमिव दुप्पूरं जणइ जयआसं ॥५१॥ एएसि पुणो भइणी बहुतरं कूडकवडमाईणि । सिक्खावेंती भुवणे गुरुत्तणं पयडइ जणस्स ॥५२॥ इय तीए वसवत्ती जीवो अन्नं धरेसि हिययंमि। भासइ पुण अन्नयरं अन्नतमं किंचि वि करेइ ॥५३॥ ता जणणि-जणय-बंधव-सामिप्पमुहं पि सयलमवि लोगं । निरवेक्खं वंचंतो कुगइ दुहाण वि न बीहे इ ।।५४॥
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