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अनुसन्धान-५८
इसी कालखण्ड में हार्टल की सूचनानुसार ब्राह्मणपरम्परा के पञ्चतन्त्र की शैली का अनुसरण करते हुए पूर्णभद्रसूरि नामक जैन आचार्य ने भी पञ्चतन्त्र की रचना की थी ।
____ ज्ञातव्य है कि जहाँ पूर्व मध्यकाल में कथाएँ संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में लिखी गई, वही उत्तरमध्यकाल में अर्थात् ईसा की १६ वीं शती से १८ वीं शती तक के कालखण्ड में मरूगुर्जर भी कथा लेखन का माध्यम बनी है। अधिकांश तीर्थमाहात्म्य विषय कथाए, व्रत, पर्व और पूजा विषयक कथाएँ इसी कालखण्ड में लिखी गई है। इन कथाओं में चमत्कारों की चर्चा अधिक है । साथ ही अर्धऐतिहासिक या ऐतिहासिक रासो भी इसी कालखण्ड में लिखे गये है।
इसके पश्चात् आधुनिक काल आता है, जिसका प्रारम्भ १९वीं शती से माना जा सकता है । जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है यह काल मुख्यतः हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं में रचित कथा साहित्य से सम्बन्धित है । इस काल में मुख्यतः हिन्दी भाषा में जैन कथाएँ और उपन्यास लिखे गये । इसके अतिरिक्त कुछ श्वेताम्बर आचार्यों ने गुजराती भाषा को भी अपने कथा-लेखन का माध्यम बनाया । क्वचित् रूप में मराठी और बंगला में भी जैन कथाए लिखी गई । बंगला मे जैन कथाओ के लेखन का श्रेय भी गणेश ललवानी को जाता है । इस युग में जैन कथाओं और उपन्यासों के लेखन में हिन्दी कथा शिल्प को ही अपना आधार बनाया गया है । सामान्यतया जैन कथाशिल्प की प्रमुख विशेषता नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना ही रही है, अतः उसमें कामुक कथाओं और प्रेमाख्यानकों का प्रायः अभाव ही देखा जाता है । यद्यपि वज्जालग्गं तथा महाकाव्यों के कुछ प्रसंगों का छोड दे तो प्रधानता नैतिक
और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना की ही रही है । यद्यपि कथाओं को रसमय बनाने के हेतु कही-कहीं प्रेमाख्यानकों का प्रयोग तो हुआ है फिर भी जैन लेखकों को मुख्य प्रयोजन तो शान्तरस या निर्वेद की प्रस्तुति ही रहा है। जैन कथाओं का मुख्य प्रयोजन :
जैन कथा साहित्य के लेखक के अनेक प्रयोजन रहे है, यथा