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फेब्रुआरी - २०१२
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महावीरचरियं एवं पासनाहचरियं, देवभद्र का पाण्डवपुराण आदि अनेक रचनाएँ है । इस कालखण्ड में अनेक तीर्थङ्करों के चरित्र-कथानकों को लेकर भी प्राकृत और संस्कृत में अनेक ग्रन्थ लिखे गये है, यदि उन सभी का नाम निर्देश भी किया जाये तो आलेख का आकार बहुत बढ जावेगा । इस कालखण्ड की स्वतन्त्र रचनाएँ शताधिक ही होगी ।
यहा यह ज्ञातव्य है कि इस काल की रचनाओं में पूर्वभवों की चर्चा प्रमुख रही है । इससे ग्रन्थों के आकार मे भी वृद्धि हुई है, साथ ही एक कथा में अनेक अन्तर कथाएँ भी समाहित की गई है । इसके अतिरिक्त इस काल के अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में भी अनेक कथाएँ संकलित की गई है - उदाहरण के रूप में हरिभद्र की दशवैकालिक टीका में ३० और उपदेशपद में ७० कथाएं गुम्फित है । संवेगरङ्गशाला में १०० से अधिक कथाएँ है । पिण्डनियुक्ति और उसकी मलयगिरि की टीका में भी लगभग १०० कथाएँ दी गई है। इस प्रकार इस कालखण्ड में न केवल मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं में अवान्तर कथाएँ संकलित है, अपितु विभिन्न कथाओं का संकलन करके अनेक कथाकोशों की रचना भी जैनधर्म की तीनों शाखाओं के आचार्यों और मुनियों द्वारा की गई है - जैसे - हरिषेण का "बृहत्कथाकोश", श्रीचन्द्र का "कथा-कोश", भद्रेश्वर की "कहावली", जिनेश्वरसूरिका "कथा-कोष प्रकरण" देवेन्द्र गणि का "कथामणिकोश", विनयचन्द्र का "कथानक कोश", देवभद्रसूरि अपरनाम गुणभद्रसूरि का "कथारत्नकोष", नेमिचन्द्रसूरि का "आख्यानक मणिकोश' आदि । इसके अतिरिक्त प्रभावकचरित्र, प्रबन्धकोश, प्रबन्धचिन्तामणि आदि भी अर्ध ऐतिहासिक कथाओ के संग्रहरूप ग्रन्थ भी इसी काल के हैं । इसी काल के अन्तिम चरण से प्रायः तीर्थों की उत्पत्ति कथाएँ और पर्वकथाएँ भी लिखी जानी लगी थी। पर्व कथाओं में महेश्वरसूरि की ‘णाणपंचमीकहा' (वि.सं. ११०९) तथा तीर्थ कथाओं में जिनप्रभ का विविधतीर्थकल्प भी इसी कालखण्ड के ग्रन्थ है । यद्यपि इसके पूर्व भी लगभग दशवीं शती में "सारावली प्रकीर्णक" में शत्रुञ्जय तीर्थ की उत्पत्ति कथा वर्णित है । यद्यपि अधिकांश पर्व कथाएँ और तीर्थोत्पत्ति की कथाएँ उत्तरमध्यकाल में ही लिखी गई हैं ।