________________
१४२
अनुसन्धान-५८
इस काल के कथा साहित्य की विशेषता यह है कि इसमें अन्य परम्पराओं से कथावस्तुको लेकर उसका युक्ति-युक्त करण किया गया है, जैसे पउमचरियं मे रामचरित्र में सुग्रीव हनुमान को वानर न दिखाकर वानरवंश के मानवों के रूप चित्रित किया गया है । इसी प्रकार रावण को राक्षस न दिखाकर विद्याधर वंश का मानव ही माना गया है । साथही कैकयी, रावण
आदि के चरित्र को अधिक उदात्त बनाया गया है । साथ ही धूर्ताख्यान की कथा के माध्यम से हिन्दू पौराणिक एवं अवैज्ञानिक कथाओं की समीक्षा भी व्यङ्गात्मक शैली में की गई है । राम और कृष्ण को स्वीकार करके भी उनको ईश्वर के स्थान पर श्रेष्ठ मानव के रूप में ही चित्रित किया गया है। दूसरे आगमिक व्याख्याओं विशेष रूप से भाष्यों और चूर्णियों में जो कथाएँ है, वे जैनाचार के नियमों और उनकी आपवादिक परिस्थितियों के स्पष्टीकरण के निमित्त है।
जैन कथा साहित्य के कालखण्डों में तीसरा काल आगमों की संस्कृत टीकाओं तथा जैन पुराणों का रचना काल है । इसका कालावधि ईसा की ८ वीं शती से लेकर ईसा की १४ वीं शती मानी जा सकती है। जैन कथा साहित्य की रचना की अपेक्षा से यह काल सबसे समृद्ध काल है । इस कालावधि में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय तीनों ही परम्पराओं के आचार्यों
और मुनियों ने विपुल मात्रा में जैन कथा साहित्य का सृजन किया है। यह कथा साहित्य मुख्यतः चरित्र-चित्रण प्रधान है । यद्यपि कुछ कथा-ग्रन्थ साधना
और उपदेश प्रधान भी है। जो ग्रन्थ चरित्र-चित्रण प्रधान है वे किसी रूप में प्रेरणा प्रधान तो माने ही जा सकते है । दिगम्बर परम्परा के जिनसेन (प्रथम) का आदिपुराण, गुणभद्र का उत्तरपुराण, रविषेण का पद्मचरित्र, जिनसेन द्वितीय का हरिवंश पुराण आदि इसी कालखण्ड की रचनाएँ है । श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र की समराइच्चकहा, कौतूहल कवि की लीलावईकहा, उद्योतनसूरि की कुवलयमाला, सिद्धर्षि उपमितिभवप्रपञ्चकथा, शीलाङ्क का चउपन्नमहापुरिसचरियं, धनेश्वरसूरि का सुरसुन्दरीचरियं, विजयसिंहसूरि की भुवनसुन्दरीकथा, सोमदेव का यशस्तिलकचम्पू, धनपाल की तिलकमञ्जरी, हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, जिनचन्द्र की संवेगरङ्गशाला, गुणचन्द्र का