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फेब्रुआरी - २०१२
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आगमयुग की कथाओं में कुछ चरितनायको के ही पूर्व जन्मों की चर्चा है। उनमें अधिकांश की या तो मुक्ति दिखाई गई है या फिर भावी जन्म दिखाकर उनकी मुक्ति का संकेत किया गया है। तीर्थङ्करों के भी अनेक पूर्वजन्मों का चित्रण इनमें नही है । समवायाङ्ग आदि में मात्र एक ही पूर्व भव का उल्लेख है। कहीं-कहीं जाति स्मरण ज्ञान द्वारा पूर्वभवों की चेतना की निर्देश भी किया गया है । आगमों में जो जीवनगाथाएं वर्णित है, उनमें साधनात्मक पक्ष को छोड़कर कथाविस्तार अधिक नहीं है । कहीं-कहीं तो दूसरे किसी वणित चरित्र से समरूपता दिखाकर कथा समाप्त कर दी गई ।
आगमयुग के पश्चात् दूसरा युग प्राकृत आगमिक व्याख्याओं का युग है । इसे उत्तर प्राचीन काल भी कह सकते है। इसकी कालावधि ईसा की दूसरी-तीसरी शती से लेकर सातवीं शती तक मानी जा सकती है । इस कालावधि में जो महत्त्वपूर्ण जैन कथाग्रन्थ अर्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत में लिखे गये उनमें विमलसूरि का पउमचरियं, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी और अनुपलब्ध तरंगवई कहा प्रमुख है । इस काल की अन्तिम शती में यापनीय परम्परा में संस्कृत में लिखा गया वराङ्गचरित्र भी आता है। यह भी कहा जाता है कि विमलसूरि ने पउमचरियं (रामकथा) के समान ही हरिवंश चरियं के रूप में प्राकृत में कृष्ण कथा भी लिखी थी, किन्तु यह कृति उपलब्ध नहीं है । इन काल के इन दोनों कथाग्रन्थों की विशेषता यह है कि इनमें अवान्तर कथाएं अधिक है । इस प्रकार इन कथाग्रन्थों में कथाप्ररोह शिल्प का विकास देखा जा सकता है । इस काल के कथा ग्रन्थों में पूर्व भवान्तरो की चर्चा भी मिल जाती है ।
स्वतन्त्र कथाग्रन्थों के अतिरिक्त इस काल में जो प्राकृत आगमिक व्याख्याओं के रूप में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णी साहित्य लिखा गया है उनमें अनेक कथाओं के निर्देश है । यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नियुक्तियों में जहाँ मात्र कथा संकेत है वहाँ भाष्य और चूर्णि में उन्हें क्रमशः विस्तार दिया गया है। धूर्ताख्यान की कथाओं का निशीथभाष्य में जहाँ मात्र तीन गाथाओं में निर्देश है, वही निशीथचूर्णि में ये कथाएँ तीन पृष्ठों में वर्णित है । इसी को हरिभद्र ने अधिक विस्तार देकर एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना कर दी है।