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अनुसन्धान-५८
महत्त्वपूर्ण है, इसमें संक्षेप रूप से अनेक कथाएँ वर्णित है । प्रथम मेघकुमार नामक अध्ययन में वर्तमान मुनि जीवन के कष्ट अल्प है और उपलब्धियाँ अधिक है, यह बात समझायी गयी है । दूसरे अध्ययन में धन्ना सेठ द्वारा विजयचोर को दिये गये सहयोग के माध्यम से अपवाद में अकरणीय करणीय हो जाता है यह समझाया गया है । इसी प्रकार इसके सातवें अध्ययन में यह समझाया गया है कि योग्यता के आधार पर दायित्वों का विभाजन करना चाहिये । मयुरी के अण्डे के कथानक से यह समझाया गया है कि अश्रद्धा का क्या दुष्परिणाम क्या होता है । मल्ली के कथानक में स्वर्णप्रतिमा के माध्यम से शरीर की अशुचिता को समझाया गया है । कछुवे के कथानक के माध्यम से संयमी जीवन की सुरक्षा के लिए विषयों के प्रति उन्मुख इन्द्रियो के संयम की महत्ता को बताया गया है । उपासकदशा में श्रावकों के कथानकों के माध्यम से न केवल श्रावकाचार को स्पष्ट किया गया है, अपितु साधना के क्षेत्र में उपसर्गों में अविचलित रहने का संकेत भी दिया गया है । अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा और विपाकदशा में विविध प्रकार की तप साधनाओं के स्वरूप को और उनके सुपरिणामों को तथा दुराचार के दुष्परिणामों को समझाया गया है ।
उपाङ्ग साहित्य में रायपसेनीयसुत्त में अनेक रूपकों के माध्यम से आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है । इसी प्रकार उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि में भी उपदेशप्रद कुछ कथानक वर्णित है । नन्दीसूत्र में औपपातिकी बुद्धि के अन्तर्गत रोहक की १४ और अन्य की २६ ऐसी कुल ४० कथाओं, वैनियकी बुद्धि की १५, कर्मजाबुद्धि की १२ और पारिणामिकी बुद्धि की २१ कथाओं इस प्रकार कुल ८८ कथाओं का नाम संकेत है । उसकी टीका मे इन कथाओं का विस्तृत विवेचन भी उपलब्ध होता है । किन्तु मूल ग्रन्थ में कथाओं के नाम संकेत से यह तो ज्ञात हो जाता है कि नन्दीसूत्र के कर्ता को उन सम्पूर्ण कथाओं की जानकारी थी । इस काल की जैन कथाएँ विशेष रूप से चरित्र चित्रण सम्बन्धी कथाएँ ऐतिहासिक कम और पौराणिक अधिक प्रतीत होती है । यद्यपि उनको सर्वथा काल्पनिक भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि उनमें वर्णित कुछ व्यक्ति ऐतिहासिक भी है ।