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अनुसन्धान ४५
ही उत्तराध्ययन में ब्राह्मण कहा है १३५
ब्राह्मण शब्द का विशिष्ट जातिवाचक अर्थ बदलने से यही सिद्ध होता है कि ब्राह्मणों द्वारा संस्कृत मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितृश्राद्ध आदि विधि का जैनियों में प्रचलन न होना बिलकुल ही स्वाभाविक
(६) जातिप्रधान वर्णव्यवस्था :
मनुस्मृति तथा मार्कण्डेयपुराण में पितरों की जातिप्रधान वर्णव्यवस्था का जिक्र किया है ।३६ ब्राह्मणग्रन्थों में निहित जातिप्रधान वर्णव्यवस्था के बदले जैन परम्पराने कर्मप्रधान वर्णव्यवस्था को महत्त्व दिया है । इससे भी बढकर विश्व के समूचे जीवों को आध्यात्मिक प्रगति के अधिकारी मानकर एक दृष्टि से अनोखी समानता प्रदान की है १३८
जैन परम्परा के अनुसार मृत जीव अपने कर्मानुसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देव आदि गतियों में जाकर संसारभ्रमण करता है।९ अतः जातिप्रधान या जातिविहीन किसी भी वर्णव्यवस्था में उन जीवों को नहीं ढाला जाता । (७) 'पिण्ड' शब्द का विशिष्टार्थबोधक प्रयोग :
_ 'पिण्ड' शब्द का मूलगामी अर्थ 'गोलक' है । लोकरूढि में यह शब्द किसी भी अन्नपदार्थ के और मुख्यत: चावल के गोलक के लिए प्रयुक्त किया जाता है । ब्राह्मण परम्परा में पितरों को श्राद्ध के समय अर्पण किये गये चावल के गोलक के लिए ही वह मुख्यतः प्रयुक्त हुआ है । चतुर्वर्गचिन्तामणि ग्रन्थ में इस शब्द को 'योगरूढ' ही माना है। ब्राह्मण परम्परा में पिण्ड शब्द के साथ पितर संकल्पना, श्राद्ध संकल्पना निकटता से जुडी हुई है। ३५. उत्तराध्ययन २५. १९ से ३२ ३६. मनुस्मृति ३.९६ से ९९; मार्कंडेयपुराण अध्याय ९३.२० से २३ ३७. उत्तराध्ययन २५.३३ ३८. आचारांग १.२.३.६५; १.४.२.२३; उत्तराध्ययन १९.२६; दशवैकालिक ६.१०; मूलाचार
२.४२ ३९. स्थानांग ४.२८५
४०. चतुर्वर्गचिन्तामणि अध्याय ४, पृ. २७०
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