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सप्टेम्बर २००८
'पिण्ड' शब्द से जुडे हुए ब्राह्मण परम्परा के सब पितरसम्बन्धी अर्थवलय जैन परम्पराने दूर किये हैं । साधु प्रायोग्य प्राशुक आहार को ही 'पिण्ड' कहा है । जैन साहित्य के प्राचीनतम अर्धमागधी ग्रन्थों में, पिण्ड शब्द का 'साधुप्रायोग्य भोजन', इस अर्थ में प्रयोग दिखायी देता है। आचारांग और दशवैकालिक दोनों ग्रन्थों में 'पिण्डेषणा' नामक स्वतन्त्र अध्ययनों की योजना की गयी है । उनमें साधुप्रायोग्य आहार की विशेष चिकित्सा की गयी है ।४१ आ. भद्रबाहु द्वारा विरचित 'पिण्डनिर्युक्ति' ग्रन्थ में भी इसी अर्थ में पिण्ड शब्द का प्रयोग हुआ है ।
साधु के उद्देश्य से न बनाया हुआ, शुद्ध और प्रासुक आहार साधु पाणिपात्र में अथवा एक ही भिक्षापात्र में इकट्ठा ही ग्रहण करते हैं । अतः विविध प्रकारके भोजन का मानों पिण्ड ही बन जाता है । रसास्वाद की दृष्टि से परे रहकर ही, निरासक्त दृष्टि से साधु पिण्ड का आहार करते हैं ।
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'पिण्ड' शब्द के इस विशेष अर्थ में किये हुए प्रयोग से यह साफ दिखायी देता है कि पितरों के उद्देश्य से बने हुए पिण्ड तथा मूलतः पितर संकल्पना ही जैनियों को मान्य नहीं है । (८) 'श्रद्धा' तथा 'श्राद्ध' शब्द के अर्थ :
चतुर्वर्गचिन्तामणि ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय में, स्मृतिचन्द्रिका, मनुस्मृति, बौद्धायनसूत्र तथा विष्णुधर्मोत्तरपुराण इन ग्रन्थों में श्राद्ध शब्द की व्युत्पत्ति विस्तार से दी है । वहाँ स्पष्टतः बताया है कि जो भी कार्य श्रद्धापूर्वक किया जाता है वह 'श्राद्ध' है । उसके अनन्तर तिल, दर्भ, मंत्र, हविर्भाग, पिण्डदान आदि श्रद्धापूर्वक देने का विधान है ।
जैन परम्परा ने श्रद्धा और श्राद्ध दोनों शब्दों का प्रयोग विपुल मात्रा में किया है। श्रद्धा में निहित मूलगामी अर्थ को ही प्राध्यान दिया है । उदक, तिल, दर्भ आदि पदार्थ देने के विधि को कहीं भी श्राद्ध नहीं कहा है । जैन परम्परा में जिनप्रतिपादित तत्त्व पर श्रद्धा रखनेवालो को 'सड्डी' याने 'श्रद्धावान' कहा है । यद्यपि यह विशेषण साधु और गृहस्थ दोनों के लिए
४१. आचारांग २.१.१ से ११: दशवैकालिक अध्याय ५, उद्देशक १ और २
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