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सप्टेम्बर २००८
( ४ ) भोजनसम्बन्धी मान्यता :
ब्राह्मण परम्परा के विविध व्रत वैकल्य तथा उद्यापन और विशेषत: श्राद्धविधि में भोजन की प्रचुरता होती है । श्राद्ध के दिन पितरों को अर्पित किया हुआ भोजन किस प्रकार का होना चाहिए, किस प्रकार का नहीं होना चाहिए इसकी विस्तारपूर्वक चर्चा स्मृति तथा पुराण ग्रन्थों में पायी जाती है । पितरों को श्राद्धान अर्पित करके उर्वरित अन्न तथा ब्राह्मणों के उच्छिष्ट अन्न का उल्लेख भी पाया जाता है ।
जैन परम्परा में जो भी धार्मिक विधिविधान या व्रत है उसमें प्राय: जप, तप, स्वाध्याय, सामायिक तथा उपवास आदि की प्रधानता होती है । ३३ यद्यपि आधुनिक काल में जैनियों में भी व्रत के उद्यापन के दिन भोजन आदि बनाएँ जाते हैं तथापि उनको प्राचीन ग्रन्थाधार नहीं है । ये प्रथाएँ स्पष्टतः ब्राह्मण परम्परा के सम्पर्क से प्रचलित हुई है ।
गृहस्थों ने खुद के लिए भोजन बनाकर ईश्वर को अर्पण करना तथा इस प्रथा का प्रचलन जैन परम्परा भोजन अर्पित करना तथा उसका
प्रसाद के रूप में उसका ग्रहण करना में नहीं है । अतः मृत पितरों को प्रसादस्वरूप ग्रहण करना भी उनको मान्य नहीं है । (५) 'ब्राह्मण' शब्द का विशेष अर्थः
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ब्राह्मण परम्परा में ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक तथा आज भी पितृतर्पण तथा श्राद्धविधि ब्राह्मणों के द्वारा ही मन्त्रपूर्वक किये जाते हैं । धर्मसम्बन्धी कार्यों में ब्राह्मण पुरोहितों का मध्यस्थ होना, जैन तथा बौद्ध दोनों श्रमण परम्पराओं को कतई मान्य नहीं था । श्रमण परम्परा में यह बार-बार निर्दिष्ट किया है कि 'ब्राह्मणत्व' जाति के आधार से नहीं पाया जाता । २४ उत्तराध्ययन में 'उसे हम ब्राह्मण कहते हैं' (तं वयं बूम माहणं) इस प्रकार के उल्लेख करके सच्चे ब्राह्मणों के लक्षण दिये हैं । क्रोधविजयी, अनासक्त, अलोलुप, अनगार, अकिंचन तथा ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले व्यक्ति को ३३. दशवैकालिक ८.६१, ६२
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३४. उत्तराध्ययन २५. ३३
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