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डिसेम्बर २००८
ब्राह्मण जाति को हीन दिखाने के वास्ते ऐसा किया गया, ऐसी दलील जरूर हो सकती है। लेकिन किसी जातिविशेष को हीन दिखाने के लिए, अपने इष्ट देव तीर्थङ्कर के साथ, इतनी जुगुप्साजनक (गर्भापहारकी) घटना जोड देना, यह कोई सच्चा भक्त कभी नहि कर सकता । भद्रबाहुस्वामी या सुधर्मास्वामी जैसे श्रुतधर और परम जिनभक्त महात्मा तो ऐसी कुत्सित कल्पना नहीं ही कर सकते थे । फिर, वे स्वयं भी ब्राह्मण जाति के थे !! ब्राह्मण होकर ब्राह्मणजाति की हीनता सिद्ध करने की ऐसी चेष्टा वे करें, यह नितान्त असम्भव प्रतीत होता है ।
एक बात, प्रसङ्गतः, स्पष्ट होनी चाहिए : कल्पसूत्र में जहां कौन से कुल में तीर्थङ्कर पैदा नहि होते उसका वर्णन लिखा है वहां, अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, भिक्षाचरकुल, कृपणकुल के नाम लिखे गये हैं, और इनमें से एक भी कुल में ब्राह्मण जाति का समावेश नहि करके ब्राह्मणकुल को उसी वाक्य में अलग लिखा गया है । अगर ब्राह्मण कुल सर्वथा हीन माना गया होता, तो उसका नाम अलग न लिखकर उक्त किसी नाम के अन्तर्गत मान लिया जाता !! परन्तु अलग लिखा गया है, उसका तात्पर्य एक ही है कि अन्य सर्व अपेक्षासे उच्च जाति होते हुए भी ब्राह्मण जाति को अयोग्य इस लिए माना गया होगा कि ब्राह्मणों ने वेदों के माध्यम से पशुमेध, नरमेध इत्यादि घोर हिंसात्मक कर्मकाण्डों को धर्म का वैध रूप दिया था और उनकी यज्ञादिरूपेण प्रवृत्ति भी चालू थी ! अब जैन धर्म एवं उसके प्रवर्तक तीर्थङ्कर तो ठहरे अहिंसामार्ग के परम उपासक और किसी भी प्रकार की हिंसा को अधर्म माननेवाले । ऐसे तीर्थङ्कर का अवतरण, ऐसी, हिंसा को धर्म माननेवाली जाति में हो, यह बात जैन परम्परा को किसी भी प्रकार से मान्य न हो, तो उसमें किसी जातिविशेष का अनादर मानना उचित नहीं लगता।
एक सवाल यह भी होता है कि इस रोगका नाम 'नैगमेषापहत' ही क्यों ?। 'गर्भक्षीणता', 'गर्भमृत्यु', 'मृतवत्स' जैसा कोई भी सार्थक नाम न देकर ऐसा निरर्थक नाम क्यों दिया होगा आयुर्वेदाचार्योने ?। नैगमेषापहृत का शब्दार्थ तो ऐसा होगा कि जो (गर्भ) नैगमेष के द्वारा अपहृत हो । इस में
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