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अनुसन्धान ४६
की कल्पनाएं अवास्तविक प्रतीत होती है ।
पहली बात : देवानन्दा और त्रिशला दोनों भिन्न भिन्न क्षेत्रों में निवास करनेवाली महिलाएं थी। फिर, दोनों के बीच में कोई सख्य हो, सम्बन्ध हो, अथवा दोनों कभी मिली भी हो, ऐसा एक भी साक्ष्य या प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । दो औरतें आत्मीयतापूर्ण सख्य से जुडी हो और दो में से एक अपने पुत्र को दूसरी सखी को भेंट करें ऐसा होना अशक्य नहीं, किन्तु यहां तो दोनों के बीच कोई अनुबन्ध ही नहीं ! इस स्थिति में ऐसा सोचना कि 'देवानन्दा के पुत्र को त्रिशलाने अपना पुत्र बना लिया होगा' केवल क्लिष्ट एवं अप्रतीतिकर, भ्रान्त धारणामात्र है ।
दूसरी बात : रोगसे गर्भ का क्षीण होना यह अलग स्थिति है, और जीवन्त और निरामय भ्रूण का गर्भपरिवर्तन एवं जन्म होना अलग स्थिति है। ग्रन्थों में मिलते प्रतिपादन के अनुसार, देवानन्दा के गर्भ को कोई रोग नहीं था, और बाद में त्रिशलादेवीने जिसे जन्म दिया वह गर्भ/पुत्र भी निरामय ही था । गर्भस्थित महावीर का निःस्पन्द होना कोई बिमारी नहीं थी, अपि तु परिपक्व गर्भने जान-बूझ कर निर्माण की हुई स्थिति थी ।
अब इन दोनों स्थितियों को जोड दे कर बात करने में कौन सा तर्क है, समझ में नहीं आता । 'नागोदर' या 'नैगमेषापहृत' ये दोनों तो गर्भ को क्षीण करनेवाले रोग का नाम है, और जैन आगमों में जो बात है वह तो निरामय गर्भ के कुक्षिपरिवर्तन की बात है । दोनों बातों का मेल कैसे बैठेगा ?। 'हरि-नैगमेषी' देव और 'नैगमेषापहृत' ये दो शब्दों की समानता को लेकर अगर दोनों बातों का मेल बैठाया जाय तो हो सकता है, किन्तु वह प्रतीतिकर नहीं हो सकता ।
देवानन्दा को उक्त रोग लागू पडा था, उसका कोई प्रमाण तो है नहि। जब कि गर्भसंक्रमण के बारे में तो एकाधिक शास्त्रों में पाठ मिल रहे हैं । फिर, देवानन्दा जैसी कोई औरत को ऐसा रोग हुआ भी हो, तो उसकी नोंध लेने की जैन शास्त्रकार को आवश्यकता भी क्या होगी ?। जिस व्यक्ति का और उसके जीवन की कोई घटना का जब महावीरस्वामी के जीवन से कोई अनुबन्ध ही नहीं है, तो उसकी जिक्र महावीर-चरित्रकार क्यों करेंगे ?!
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