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October-2007
नथी (२४).
पर्यायथी पूर्वरूपे विनाश, कोई नवा रूपे उत्पत्ति, अने ते बन्ने स्थितिमां द्रव्यरूपे स्थिर होवू, आ ज छे अनेकान्तवाद (२५). स्वकीय द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव वडे सत्त्व, परकीय द्रव्यादि वडे असत्त्व; ए ज प्रकारे द्रव्य अने पर्यायथी भेद-अभेद-,नित्य-अनित्य वगेरे स्वीकारवा, ते छे स्याद्वाद (२६).
पदार्थ अवयवोनी अपेक्षाए अनेकात्मक होय अने अवयवीनी अपेक्षाए एकात्मक; प्रमाणसप्तभङ्गी प्रमाणे अनभिलाप्य, तो नयसप्तभङ्गी प्रमाणे अभिलाप्य बने; आ स्याद्वाद-रहस्य छे (२७).
विजातीयथी व्यावृत्ति, सजातीयनी अनुवृत्ति, आ रीते व्यक्ति अने जाति बन्ने एकमेकमां विलीन छे; एकान्तवाद स्वीकारो तो तुरत दूषण आवी लागशे (२८).
घडो नथी अन्वय के नथी व्यतिरेक; ते तो मृद्-माटीथी भिन्न पण छे अने तेनी साथे तेनो संसर्ग पण छे, एटले भेदाभेदात्मक घडो ए स्वतन्त्र जाति (जात्यन्तर) ज छे (२९).
३०, ३१, ३२ - आ त्रण पद्यो स्याद्वादनी सिद्धि माटे प्राचीनो द्वारा प्रयोजाएलां ३ उदाहरणो रूप पद्यो छे, जे उद्धरणात्मक छे. तो ३३-३४-३५ पद्यो स्याद्वादकलिकाकारे पोते ज रचेली 'जिनस्तुति' नामक के स्वरूपी कृतिमाथी उद्धृत करेलां पद्यो छे; तेनी पद्धति हेमचन्द्राचार्यकृत 'वीतरागस्तव' गत 'चित्रमेकमनेकं च, रूपं प्रामाणिकं वदन् । यौगो वैशेषिको वापि, नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् ।।' इत्यादि श्लोकोनी शैलीने अनुसरे छे, अने क्रमशः बौद्ध, कणाद तथा अक्षपाद, अने कपिल - आ ४ आचार्योनो प्रतिक्षेप अथवा तो ते लोको द्वारा केवी रीते स्याद्वादनो स्वीकार थयो छे, ते दर्शावे छे.
एकान्तवादमां वस्तु अर्थक्रियाकारी नथी बनती; तेथी वस्तु अवस्तु बनी रहे छ; अने ए दोषो अनेकान्तवादमां नथी लागता (१६). तो, पोते पोताने पोताना वडे जाणे छे, जेम सर्प पोताने पोता वडे वीटळाय तेम; एक ज पदार्थमां अनेक सम्बन्धो संभवे छे; आ छे स्याद्वादनी दीपिकानुं स्वरूप (३७), वैदक, ज्योतिष अध्यात्म आदि विविध शास्त्रोनो जाण मनुष्य ज सर्वत्र
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