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अनुसन्धान-४१
गणाय. (१०).
एक ज पद के वाक्यमा विविध लिङ्गो होय; आ बधुं स्याद्वाद थकी ज सिद्ध थाय. (११-१२).
जैनमते 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' त्रणेथी युक्तने ज सत् पदार्थ गणवामां आवे छे. स्याद्वादनी आ मर्यादा तमस् अने छायामां, आलोकनी जेम ज घटे छे (१३-१४). कर्म ए पण पुदल छे, उत्पादादियुक्त छे, उपघात अने अनुग्रह जेवा विरुद्ध धर्मो तेमां पण छे, जे स्याद्वादमुद्रा ज छे (१५).
चित्त (मन) पण पौद्गलिक छे, मैत्री आदि प्रमोदकर अने कामक्रोधादि क्लेशकर-आवा परस्पर विरुद्ध भावोयुक्त छे; आ परिणति-वैचित्र्यने कारणे मन पण त्रयात्मक सिद्ध थाय छे. (१६). (नित्य मनाता) धर्म, अधर्म अने आकाश जेवां द्रव्यो पण, पुद्गल अने जीवोना संयोग-विभागवाळा थतां होई नित्यानित्य होवानुं सिद्ध थाय ज छे; ए ज छे स्याद्वाद (१७). तो अलोकाकाशमां पण संयोग-विभागनी शक्ति तो होय ज; ते शक्तिनी अपेक्षाए ते पण त्रयात्मक बने छे (१८).
कालद्रव्य, चाहे नैश्चयिक हो के व्यावहारिक काल, तेमां पण पुद्गलपरावर्तनने कारणे स्वभावभेद सिद्ध थाय ज छे (१९). अथवा व्याकरणनो 'क्त्वा' प्रत्यय, एक ज कर्तानी बे क्रिया वखते, पूर्व काल अने पर कालएवी भिन्नता पुरवार करे छे, जे काल द्रव्यने नित्यानित्य सिद्ध करे छे (२०).
___ 'पीयमानं मधु मदयति' आ वाक्यमां 'मधु' पद बे क्रियापदो। क्रियाओ साथे लागु पडे छे; स्याद्वाद विना आ क्यांथी संभवशे ? (२१).
अनवस्था, संशय, व्यतिकर, साङ्कर्य, विरोध वगेरे दूषणो अन्य वादीओ भले आपता होय, पण “स्याद्वाद'ने ते स्पर्शे तेम नथी. केमके एकान्त 'नित्य' पक्षमां, एकान्त 'अनित्य' पक्षमां, परस्पर निरपेक्ष 'नित्य-अनित्य' पक्षमां - एम वण पक्षोमां ए दूषणो लागु पडे खरा; परंतु परस्पर सापेक्ष एवो 'नित्यानित्य' पक्ष तो चोथो विलक्षण पक्ष छे; तेमां ए दूषणो कोई वाते लागतां नथी (२२-२३).
एक ज पदार्थमां परस्पर विलक्षण एवा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श जेम रही शके छे, तेम उपाधिना भेदे बोधनो भेद, तेना विषे, थाय तो कोई विरोध
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