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September-2006
ने भगवान महावीर के व्यक्तित्वकी खोज लेकर यह विचार प्रकट किये हैं कि ये सारी अद्भुतताएं दूर हटाकर भी उनके कार्यकर्तृत्व का महत्त्व अनन्य साधारण है । कृष्ण के बारे में भी यही विधान सत्य है । हालांकि दोनों के कार्यक्षेत्र इस संदर्भ में अलग-अलग होंगे। भगवान महावीर आध्यात्मिक दृष्टि से महान आत्मा हैं तो भगवान कृष्ण निपुण राजनीतिज्ञ एवं कुशल प्रशासक हैं ।
यद्यपि जैन दर्शन में अद्भुतता है तथापि विश्वस्वरूप का वर्णन जिधर कहीं पाया जाता है वह गीता की विश्वदर्शन की तरह रौद्र, भीषण
और अद्भुत नहीं है यथातथ्य ही है। फिर भी स्वर्ग और नरक के सुखदुःखों के वर्णन में ये अद्भुतता के अंश दिखाई पड़ते हैं १३४ तो फर्क इतना ही हुआ कि भगवान महावीरने या अन्य किसी ने अद्भुतता दिखाकर किसी महासंग्राम की प्रेरणा नहीं दी है और कृष्ण तो इस अध्याय में स्पष्ट कहते हैं कि
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुक्ष्व राज्यं समृद्धम् । मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥
(गीता ११.३३) (१०) ईश्वरी कृपा से इस प्रकार का विश्वदर्शन, अन्य साधन से नहीं ।
__ अर्जुन भयभीत होकर कृष्ण से चतुर्भुज रूप धारण करने की प्रार्थना करता है । कृष्ण योगशक्ति से उस प्रकार का रूप धारण करता है। अगले तीन श्लोकों में विश्वरूप दर्शन में ईश्वरी कृपा का स्थान तथा महत्त्व बताता है । वह कहता है, 'मैंने प्रसन्न होकर आत्मयोग से यह रूप तुझे दिखाया है । अनन्त और आदिरूप (सब का आदि) विश्व का यह तेजोमय दर्शन तेरे सिवाय किसी दूसरे को नहीं दिखाया गया है । इस मनुष्य लोक में वेद, यज्ञ, अध्ययन, दान, विविध किया तथा उग्र तप से भी यह नहीं किया जाता ।
जैन दर्शन की दृष्टि से इस निवेदन में कई आलोचनाह अंश हैं। गीता की दृष्टि से देखें तो भी कई मुद्दे उभरकर सामने आते हैं । सांख्ययोग
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