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मार्च २००८
सन् १९६२-१९६३ में अनेक व्यक्तियों व भारत सरकार के उत्साहन और सहायता से श्रीमती काइया को भारत यात्रा का सर्वप्रथम अवसर प्राप्त हुआ । तब से ही वे भारत के जैन धर्म के प्रमुख विद्वानों के सम्पर्क में आयीं । अहमदाबाद में लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के निदेशक पण्डित दलसुखभाई मालवणिया (1910-2000 ) और उनके परिवार के साथ श्रीमती काइया की घनिष्ठता हो गई । उनके वात्सल्य के वातावरण में श्रीमती काइया ने पूर्णतया लाभ उठाया । प्रज्ञाचक्षु पण्डित सुखलालजी संघवी (1880-1978) की सरलता और गम्भीरता से भी वे अत्यन्त प्रभावित हुई । प्रोफेसर हरिवल्लभ भायाणी ( 1917-2000) के साथ प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं पर विशेष चर्चा होती । आगमप्रभाकर आचार्य श्रीपुण्यविजयजी ( 1895-1971) के व्यक्तित्व तथा कृतित्व का उन पर अत्यन्त प्रभाव पडा । उन्होंने फ़्राँसीसी पाठको के लिए मुनिजी की जीवनकथा का वर्णन किया । अन्तिमवर्षों में आचार्य श्रीविजयशीलचन्द्रसूरिजी महाराज से भेंट होने के बाद से उनका दर्शन पाना श्रीमती काइया के लिए अनिवार्य था । दिगम्बर विद्वानों के साथ भी उनका बहुत अच्छा सम्पर्क रहा। वे डाक्टर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये (1906-1975) को अपना भारतीय गुरु मानती थीं । उन्हीं के साथ रामसिंहकृत दोहापाहुड तथा जोइन्दुकृत परमात्मप्रकाश पढकर श्रीमती काइया ने अपभ्रंश के इन दोनों पावन ग्रन्थों का अनुवाद प्रकाशित किया । सन् १९८१ में उन्होंने भारतवर्ष के बाहर सर्वप्रथम अन्तर्राष्ट्रीय जैन सम्मेलन का आयोजन किया और पण्डित दलसुखभाई माल्वणिया तथा प्रोफेसर नथमल टाटिया को आमन्त्रित किया ।
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सन् १९४२ से १९५० तक श्रीमती काइया राष्ट्रीय वैज्ञानिक अनुसन्धान केन्द्र के अधीन गवेषणा करती रहीं और तत्पश्चात् उनका सारा बौद्धिक जीवन विश्वविद्यालय की सेवा में अर्पित हो गया । पहले वे ल्यों (Lyon) नगर
9. The Offering of Distics (Dohāpāhuda) : Sambodhi 5, 1976, pp. 176199; Lumière de 1 Absolu [Yogindu's Paramātmaprakāśa], Paris, Payot, 1999.
10. Proceedings of the International Symposium on Jaina Canonical and Narrative Literature, Torino, 1983.
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