________________
फेब्रुआरी - २०१२
श्रीजिनवल्लभसूरिचितं प्रश्नोत्तरशतम् (सटीकम्)
- सं. मुनि रत्नकीर्तिविजय ___ मुनि त्रैलोक्यमण्डनविजय
खरतरगच्छीय श्रीजिनवल्लभसूरिजी-विरचित 'प्रश्नोत्तरशतम्'काव्य प्रहेलिकामय विशिष्ट रचना छे. आ काव्य पर रचायेली अनेक टीकाओ ज आ काव्यनी प्रसिद्धिनो पुरावो छे. काव्यना नाममां सो-नी संख्या सूचित थती होवा छतां, काव्यनी प्रायः दरेक वाचनामां दोढसोथी पण वधु श्लोक मळे छे. अत्रे सम्पादित सटीक वाचनामां १५८ श्लोको छे.
सम्पादित करेली अज्ञातकर्तृक टीका अवचूरि स्वरूपनी छे. मूळ काव्यमां ओक के बे श्लोकमां अक साथे घणा बधा प्रश्नो पूछी तेना जवाब तरीके कूटाक्षरो लखवामां आव्या छे. आ कूटाक्षरोमांथी सन्धिविच्छेद, अक्षरोनी आगळ-पाछळ गोठवणी वगेरे द्वारा दरेक प्रश्ननो जवाब मेळववानी रीत टीकामां सरस रीते देखाडवामां आवी छे. टीका प्रमाणमां घणी संक्षिप्त होवा छतां वांच्या पछी अस्पष्टता लगभग नथी रहेती, ते अनी विशेषता छे.
अत्रे सम्पादनमा कूटाक्षरमय जवाब घाटा अक्षरे छापवामां आव्यो छे. वाचकोनी सरळता माटे श्लोकगत प्रश्नो अने टीकागत उत्तरोने अलग-अलग करी दरेकने क्रमांक आपवामां आव्या छे. केटलांक स्थाने चित्रालंकारनी आकृतिओ प्रतमा हती ते प्रमाणे मूकी छे.
आ टीका- सम्पादन वि. १६१८मां लखायेली हस्तप्रत परथी करवामां आव्युं छे. प्रत अत्यन्त अशुद्ध अने त्रुटित पाठ धरावे छे. जो म. विनयसागरजी अने आ. सोमचन्द्रसूरिजी द्वारा सम्पादित थयेला, आ ज काव्यनी अन्य टीका साथेना 'प्रश्नोत्तरैकषष्टिशतककाव्यम्' नामना पुस्तकनी सहाय न होत तो मात्र आ प्रतना आधारे प्रस्तुत स्वरूप, सम्पादन अशक्य ज हतुं. काव्य अने टीकामां शुद्धीकरण, त्रुटित अंशोनी पूर्ति व. आ पुस्तकने सहारे ज थयुं होवाथी तेओर्नु अत्रे कृतज्ञभावे स्मरण करीओ छीओ.